यदि आप देश के किसी भी हिस्से में जाएंगे तो आपको प्लास्टिक या थर्मोकॉल का प्लेट दिख ही जाएगा। यह न केवल हमारे पर्यावरण के लिए अच्छी बात है और न ही हमारे शरीर के लिए। इन प्लेट्स ने धीरे धीरे पुराने समय से प्रयोग की जा रही पत्तल की प्लेटों का स्थान ले लिया है, जबकि पत्तल में खाने से हमारे शरीर को कई तरह के फायदे मिलते हैं। लेकिन इन सबके बीच देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पत्तलों को फिर से हम सबके टेबल पर पहुँचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। आज हम आपको एक दंपति से मिलवाने जा रहे हैं, जिन्होंने पत्तल को फिर से हर घर तक पहुँचाने का जिम्मा उठा लिया है।
हैदराबाद में रहने वाले माधवी और वेणुगोपाल ने 2019 में ‘विसत्राकू’ नाम से एक स्टार्टअप की नींव रखी, जिसके ज़रिए वह साल और पलाश के पत्तों से इको-फ्रेंडली प्लेट और कटोरी बना रहे हैं। ‘विसत्राकू’ तेलुगु भाषा में पत्तल या पत्रावली को कहा जाता है।
माधवी और वेणु की कहानी काफी रोचक है। एक बार उन्होंने अपनी सोसाइटी के बाहर डिस्पोजेबल प्लेट्स का ढेर लगा देखा, वहाँ कुछ जानवर भी थे जो भोजन ढूंढ़ रहे थे। यह दृश्य देखकर दोनों बहुत निराश हुआ और यहीं से ‘विसत्राकू’ की कहानी शुरू होती है।
माधवी और वेणु का सिद्दिपेट में 25 एकड़ का खेत है। जहाँ उन्होंने 30 से भी ज्यादा किस्मों के फल आदि लगाए हुए हैं। अपने खेत पर उनका आना-जाना लगा रहता है। उनके खेत पर कई पलाश के भी पेड़ हैं और एक दिन बातों-बातों में माधवी की माँ ने उन्हें बताया कि पलाश के पत्तों को पहले पत्तल बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। वेणु और माधवी ने कुछ पत्ते इकट्ठा कर उनसे प्लेट बनाने की कोशिश की।
उन्हें सफलता तो मिली लेकिन ये प्लेट्स छोटी थीं। पर इस दंपति ने हार नहीं मानी। प्रकृति के प्रति सजग रहने वाले वेणु कई फेसबुक ग्रुप्स का हिस्सा हैं और इन्हीं फेसबुक ग्रुप्स के ज़रिए उन्हें पता चला कि ओडिशा में आदिवासी समुदाय अभी भी इस तरह के पत्तल बनाते हैं।
वहाँ इन्हें खलीपत्र कहा जाता है और इन्हें साल, सियाली के पत्तों से बनाया जाता है। इसलिए ऐसा नहीं है कि सिर्फ सिंगल-यूज प्लास्टिक की ही क्रॉकरी बाजार में है। इको-फ्रेंडली पत्तल, दोना आदि अभी भी बनते हैं। लेकिन इनका इस्तेमाल कम हो गया है।
“हमारी कई नैचुरोपैथ से भी इस बारे में बात हुई। उन्होंने बताया कि पलाश या साल के पत्तल पर खाना खाना सिर्फ पर्यावरण के लिए ही नहीं बल्कि हमारे स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है। पत्तल पर जब खाना परोसा जाता है तो यह उसमें एक प्राकृतिक स्वाद तो भरता ही है, साथ ही, कीड़े-मकौड़े भी इनसे दूर भागते हैं। हमारी खोज हमें ओडिशा ले गई और वहाँ हमें एक सप्लायर भी मिला जो आदिवासी समुदायों के वेलफेयर के लिए काम करता है,” उन्होंने आगे कहा।
फ़िलहाल, उन्होंने अपने खेत पर ही यूनिट सेटअप की है, जहाँ पत्तल और कटोरी बनाते हैं। वह दो साइज़ की प्लेट्स और एक साइज़ की कटोरी बना रहीं हैं। इन इको-फ्रेंडली, सस्टेनेबल और प्राकृतिक प्लेट्स की मार्केटिंग वेणु और माधवी ने अपनी सोसाइटी से ही शुरू की। जिस भी दोस्त-रिश्तेदार ने अपने आयोजनों में इन प्लेट्स को इस्तेमाल किया, सभी ने सोशल मीडिया पर उनके बारे में लिखा और इस तरह से उन्हें एक अच्छी पहचान मिलने लगी।
“अब हमारे प्रोडक्ट्स भारत के शहरों के साथ-साथ बाहर के देश जैसे अमेरिका और जर्मनी तक भी जा रहे हैं। बाहर भी इस तरह के सस्टेनेबल विकल्पों की काफी अच्छी मांग है,” माधवी ने बताया। हालांकि, एक सस्टेनेबल लाइफस्टाइल की माधवी और वेणु की कहानी इससे बहुत पहले से शुरू होती है।
माधवी ने फार्मेसी और जेनेटिक्स में मास्टर्स किया हुआ है और वेणु मैकेनिकल इंजीनियर हैं। दोनों ने ही बैंकाक, मलेशिया, सिंगापूर और फिर अमेरिका में काम किया। लेकिन जब उनके बच्चे पैदा हुए और बड़े होने लगे तो उन्हें लगा कि उन्हें भारत लौट आना चाहिए। वह अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति से जोड़े रखना चाहते थे और साल 2003 में यह दंपति हैदराबाद में आकर बस गई। यहाँ पर उन्होंने अपनी बचत के पैसों को इकट्ठा करके सिद्दिपेट में ज़मीन भी ले ली।
कुछ अलग करने की चाह ने उन्हें जैविक खेती से जोड़ा और अपने कॉर्पोरेट जॉब के साथ माधवी और वेणु वीकेंड फार्मर्स बन गए। मतलब कि हर शनिवार और रविवार वह अपने खेत पर वक़्त बिताते। वहाँ उन्होंने शुरू में बांस, जामुन, टीक आदि के पेड़ लगा दिए। लेकिन फिर 2010 में माधवी को पता चला कि उन्हें ब्रैस्ट कैंसर है।
“अचानक से मुझे लगने लगा कि मैं अपने परिवार से दूर चली जाऊंगी। मैं उनके साथ अच्छा वक़्त नहीं बिता पाऊंगी। मेरे बच्चे उस समय 9वीं या 10वीं क्लास में होंगे और मैं उन पर अपनी बीमारी का बोझ नहीं डालना चाहती थी। लेकिन मैं उन सभी के साथ ज्यादा से ज्यादा वक़्त बिताना चाहती थी,” माधवी ने कहा।
इसके बाद उन्होंने तय किया कि वह खेती करेंगे और अपने खेत पर अच्छा वक़्त बिताने लगे। माधवी कहतीं हैं कि अब उनके खेत पर सब्जियों और फलों के ढेर सारे पेड़-पौधे हैं। टमाटर, हरी मिर्च, करेला, भिंडी, अदरक के साथ वह गेंदे के फूलों की भी खेती करते हैं। इसके साथ-साथ उनके पास आम की 30 अलग-अलग किस्मों के लगभग 2000 पेड़ हैं।
धीरे-धीरे माधवी ने कैंसर को मात दे दी और आज वह बिल्कुल ठीक हैं। लेकिन इस सफर ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया और कहीं न कहीं इसी वजह से यह परिवार प्रकृति और पर्यावरण से काफी ज्यादा जुड़ा हुआ है।
उन्होंने कभी भी अपना कोई स्टार्टअप करने के बारे में नहीं सोचा था लेकिन जब उन्हें लगा कि विसत्राकू के ज़रिए वह लोगों की और पर्यावरण की भलाई कर सकते हैं तो उन्हें इस क्षेत्र में आगे बढ़ने की ठानी। शुरूआत में उन्हें यूनिट सेटअप करने में काफी परेशानी भी आई लेकिन वह पीछे नहीं हटे।
फ़िलहाल, उनकी यूनिट से 7 लड़कियों को काम मिल रहा है। यूनिट में हर दिन 7 हज़ार से 10 हज़ार के बीच में प्लेट्स और कटोरी बनतीं हैं। सबसे पहले पत्तों को फ़ूड ग्रेड धागे से सिला जाता है और फिर इन्हें फ़ूड ग्रेड कार्डबोर्ड के साथ मशीन के नीचे रखा जाता है। मशीन का तापमान 60-90 डिग्री सेंटीग्रेड होता है और कम से कम 15 सेकंड्स के लिए प्रेशर लगाया जाता है। यह इन पत्तों को एक प्लेट का आकार देता है।
माधवी और वेणु कहते हैं कि उनका सिर्फ एक ही उद्देश्य है और वह है पत्तल पर खाने की संस्कृति को वापस लाना। लोगों को यह अहसास दिलाना कि उनका पत्तल पर खाने का एक छोटा-सा कदम लाखों टन प्लास्टिक के कचरे से हमारे पर्यावरण को बचा सकता है।
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संपादन – जी. एन झा
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