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लद्दाख: बौद्ध भिक्षु ने खोल दिए अपने अस्पताल के द्वार, कोरोना मरीज़ों का हो रहा मुफ्त इलाज

“मैं इस महामारी के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले लोगों के प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहूंगा। वे परिवार से दूर अपने कर्तव्य के प्रति अटूट भावना के साथ काम कर रहें हैं।”

कोरोना वायरस पूरे देश में पैर पसार रहा है। लेह भी इससे अछूता नहीं है। करीब तीन हफ्ते पहले तक राज्य का सोनम नोरबू मेमोरियल अस्पताल COVID-19 के कई संदिग्ध मामलों को संभालने में असमर्थ हो रहा था। ऐसे में लेह जिला प्रशासन ने लद्दाख हार्ट फाउंडेशन (LHF) से संपर्क किया। यह एक गैर लाभकारी संस्था है जिसकी स्थापना 49 वर्षीय बौद्ध भिक्षु, लामा थुपस्तन चोग्यल ने की थी। यह मुख्य शहर से लगभग 8 किमी की दूरी पर है और इस अस्पताल में इलाज मुफ्त में होता है।

अब तक इस इलाके में कोविड-19 के 13 पॉज़िटिव मामले सामने आए हैं, जिनमें से 2 कारगिल जिले और 11 लेह जिले से हैं। द बेटर इंडिया के साथ बात करते हुए, लामा थुपस्तन चोग्यल कहतें हैं, “हम प्रशासन की मदद और सहयोग करने के लिए सहमत हुए। हमारे अस्पताल और सुविधाओं की आवश्यकता होने के बारे में सूचित करने के कुछ दिनों बाद, मुझे एक फोन आया और बताया गया कि वह एक मरीज़ ला रहें हैं। जैसा कि यह स्वयंसेवक डॉक्टरों और नर्सों के साथ चलने वाला एक निःशुल्क अस्पताल है, हमने स्थानीय प्रशासन से अनुरोध किया कि वे हमारे यहां अपने कुछ मेडिकल स्टाफ तैनात करें ताकि संदिग्ध मामलों की निगरानी हो सके। प्रशासन इस बात के लिए राज़ी हो गया और कहा कि उन्हें अस्पताल और उसकी सुविधाओं की ज़रूरत है।”

Monk’s Free Hospital
लामा थुपस्तन चोग्यल

अब तक अस्पताल में कुछ संदिग्ध रोगियों को भर्ती किया गया है। अगर किसी मरीज़ का टेस्ट पॉज़िटिव आता है तब उसे इलाज के लिए सरकार द्वारा संचालित चिकित्सा सुविधा में भेजा जाता है।
सिंगल कमरे की कमी के बावजूद, चोग्यल का अस्पताल संदिग्ध मामलों को क्वारंटीन करने में प्रशासन की पूरी मदद कर रहा है। वह कहतें हैं,

“हम अपने डॉक्टरों, नर्सों, सफाईकर्मियों और एम्बुलेंस ड्राइवरों की हर संभव मदद कर रहें हैं ताकि वे बिना किसी डर के अपने कर्तव्य का पालन कर सकें। स्थानीय प्रशासन की सहायता के लिए मैं 24 घंटे अस्पताल में रहता हूं। लेह कम जनसंख्या घनत्व वाला क्षेत्र है। गाँव काफी फैले हुए हैं और अलग-अलग हैं। इसलिए नियंत्रण पाना आसान है। पहला मामला चुचोट में सामने आया था, जहां ईरान से लौटे तीर्थयात्रियों से उनके रिश्तेदार संक्रमित हुए थे। मैं यह सुनिश्चित करना चाहता हूं कि यह आगे न फैले।”

इन सबके बीच, चोग्यल के लिए सबसे कठिन काम युवा बच्चों को क्वारंटीन करते देखना था। वह बताते हैं, “वहां उन बच्चों को देखकर मेरा दिल बैठ गया, डर गया कि उनका क्या होगा। वयस्कों के विपरीत, ये बच्चे यह भी नहीं जानते हैं कि उनके साथ क्या हो रहा है, लेकिन वे एक कमरे तक ही सीमित हैं। इस उम्र में, इन बच्चों को बाहर खेलने के बजाय एक कमरे में सीमित रहना पड़ रहा है। मैं उनकी हालत के बारे में सोचते हुए कई दिनों तक ठीक से सो नहीं सका।”

नुब्रा के एक ENT विशेषज्ञ और स्थानीय कार्यकर्ता, डॉ. नॉर्डन ओत्ज़र ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए कहा, “एलएचएफ की तरफ से प्रशासन को दी गई सुविधा और योगदान सराहना करने योग्य है। यह स्वास्थ्य विभाग के लिए एक बड़ी राहत के रूप में सामने आया है। इससे अस्पताल के अन्य रोगियों और कर्मचारियों तक संक्रमण फैलने की संभावना कम होगी। COVID-19 के संदिग्ध रोगियों के इलाज के लिए एक अलग सुविधा की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है। इसलिए, मुझे लगता है कि अस्पताल के डॉयरेक्टर ने सराहनीय निर्णय लिया है।”

बहरहाल, COVID-19 महामारी से निपटने में जिला प्रशासन की मदद के अलावा इस क्षेत्र में एलएचएफ कई बेहतरीन सेवाएं प्रदान कर रहा है।

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Medical staff at the Ladakh Heart Foundation battling COVID-19. Source: Facebook

शुरुआती दिन और एलएचएफ

लेह के पास स्पितुक गाँव में जन्मे और पले-बढ़े चोग्यल एक ऐसे परिवार से आते हैं, जहां पीढ़ियों से पारंपरिक चिकित्सा का अभ्यास किया गया है। हालाँकि, वह भिक्षु बनना चाहते थे। उन्होंने कुछ वर्षों तक स्थानीय स्पितुक मठ में अध्ययन किया। इसके बाद कुछ वर्षों तक कर्नाटक के एक मठ में रहे और आखिरकार धर्मशाला के नामग्याल मठ पहुंचे।

इसके बाद वह कोरियाई भाषा और जैन बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिए दक्षिण कोरिया गए। इसके बाद एक छोटे अकादमिक कार्यकाल के लिए स्कॉलरशिप पर यूनाइटेड किंगडम गए। इस कार्यकाल को और भी छोटा करना पड़ा क्योंकि दिल्ली की एक यात्रा ने उनकी जिंदगी बदल दी और उन्होंने साल 1997 में एलएचएफ पर काम शुरू कर दिया।

उन्होंंने दिल्ली के सिविल लाइन्स इलाके के लद्दाख बौद्ध विहार में रूमाटिक हृदय रोग (rheumatic heart disease) से जूझते कई बीमारों को देखा, उनमें छोटे बच्चे भी शामिल थे। इसे देखकर उनका मन विचलित हो गया। उन मरीज़ों का इलाज दिल्ली में ही चल रहा था। वह एक ऐसा दृश्य था जिसने उन्हें परेशान कर दिया और घर लौटने पर, उन्होंने एक स्थानीय डॉक्टर से बात की और पूछा कि क्या इस बीमारी के इलाज का कोई तरीका है।

वह याद करते हुए बताते हैं, “डॉक्टर ने मुझे बताया कि इन रोगियों को पेनिसिलिन, बड़ी मात्रा में डिस्टिल्ड वॉटर और सीरिंज की आवश्यकता थी। मैंने स्थानीय स्वास्थ्य विभाग से संपर्क किया और उनसे इन्हें खरीदने का ऑर्डर देने के लिए कहा। मैंने उनसे कहा कि आवश्यक धन राशि की व्यवस्था मैं करूंगा। लगभग 26,000 रुपये खर्च करते हुए, मैंने पेनिसिलिन और अन्य सामग्री खरीदी जो आसपास के गांवों में वितरित की गई थी। इसके अलावा, मैंने स्थानीय स्वास्थ्य विभाग से अनुरोध किया था कि दूरदराज के गाँवों में उचित जागरूकता अभियान चलाया जाए, ताकि जल्द से जल्द इस बीमारी का इलाज किया जा सके।”

उनकी चेकलिस्ट पर अगली चीज़ एम्बुलेंस थी जो जागरूकता अभियान चलाने की प्रक्रिया में काफी मदद कर सकता था। उन्होंने विदेश में रह रहे अपने दोस्तों से संपर्क किया और उनकी मदद से एक एम्बुलेंस खरीदा। 1997 के अंत में, चोग्यल ने एलएचएफ सोसायटी का पंजीकरण किया और एलएचएफ के काम का ही नतीजा है कि आज लद्दाख में RHD के नए मामले लगभग ना के बराबर हैं।

चोग्यल कहतें हैं, “हर छह महीने में, इन रोगियों को इलाज के लिए दिल्ली जाना पड़ता था, जो इलाज की लागत को बढ़ाता है। मैंने दिल्ली का दौरा किया और डॉ. संपथ कुमार जैसे समर्पित डॉक्टरों को संपर्क किया। उस समय वह कार्डियोथोरेसिक सर्जरी के प्रोफेसर थे और मैंने उनसे अनुरोध किया कि वह यहां आएं और मरीज़ों का इलाज करें। मेरी संस्था ने उनके सभी यात्रा और आवास का खर्च वहन करना सुनिश्चित किया। डॉ. कुमार, जो एम्स में पूर्व हार्ट सर्जन थे, अगले साल, 1998 में लेह पहुंचे।“

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At the entrance of the LHF facility.

मेडिकल कैंप के आयोजन के लिए लद्दाख हार्ट फाउंडेशन (LHF) ने स्थानीय सेना अस्पताल से संपर्क किया क्योंकि उस समय सोनम नोरबू मेमोरियल अस्पताल में इको मशीन नहीं थी। 2004 में, डॉ. कुमार और चोग्यल द्वारा दिल्ली जाकर इसे खरीदने तक, उन्होंने ही इस कैंप का संचालन किया।

हालांकि, चोग्यल को एक चिकित्सा सुविधा के लिए दूसरों पर निर्भर रहने के बजाय एक छोटा अस्पताल स्थापित करने की सलाह दी गई। इसलिए, उन्होंने स्थानीय हिल काउंसिल प्रशासन से संपर्क किया। उनसे थोड़ी जमीन की मांग की जिस पर वे अस्पताल का निर्माण कर सकें। एक अन्य क्राउडफंडिंग प्रक्रिया के बाद, 2002 में एलएचएफ ने अस्पताल का निर्माण शुरू किया, जो साल 2007 तक सभी सुविधाओं के साथ पूरा हो गया।

वह कहतें हैं, प्लास्टिक सर्जरी और सर्वाइकल कैंसर के इलाज जैसी अन्य प्रक्रियाओं के अलावा, हमने अब तक 300 हार्ट सर्जरी की है। साथ ही लद्दाख के दूरदराज के गांवों में कई बीमारियों और सर्वाइकल कैंसर से संबंधित कई जागरूकता और शिक्षा कार्यक्रम आयोजित किए हैं।”

हर महीने, एलएचएफ में 500-700 मरीज़ आते हैं, जिनका इलाज लद्दाख के डॉ. सेरिंग लैंडोल और डॉ. सेरिंग नॉर्बू (दोनों ही पद्म श्री से सम्मानित) जैसे बेहतरीन डॉक्टरों द्वारा किया जाता है। उनके पास कुछ नर्सों के साथ लगभग चार डॉक्टर हैं जो नियमित और स्वैच्छिक रूप से काम करतें हैं।

एलएचएफ की वेबसाइट कहती हैं, “हम साल 1998 से लद्दाख के ग्रामीण भागों में स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन करते आ रहें हैं, जिसमें दिल की बीमारियों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से हृदय रोग विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है। क्योंकि हमारी चिकित्सा की स्थिति बाकी दुनिया से अलग हैं, हमने इस बारे में एक साथ लिखने और उसे शेष चिकित्सा समुदाय के साथ साझा करने की चुनौती ली है। हम दुनिया के अन्य हिस्सों के चिकित्सा शोधकर्ताओं के साथ गठजोड़ कर इस लेख को पूरा कर सकते हैं और इसे मेडिकल रिपोर्ट में अनुवाद कर सकते हैं। हम हाइपोक्सिया, गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं, सर्वाइल कैंसर और अन्य चिकित्सा के क्षेत्रों पर शोध करतें हैं।”

COVID-19 पर फोकस

चोग्यल कहतें हैं, “इस समय, हमने COVID-19 के कारण सभी आउटरीच कार्यक्रमों को निलंबित कर दिया है। हमने अपनी ओपीडी को बंद कर दिया है क्योंकि हमारे बहुत सारी मरीज़ गर्भवती महिलाएं हैं, जो स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. लैंडोल के लिए आतीं हैं। हमारा ध्यान फिलहाल लद्दाख में COVID-19 महामारी के प्रबंधन पर है।”

COVID-19 के कारण भय और घबराहट के बावजूद, चोग्यल का मानना है कि इस तरह की महामारी सबके लिए एक महत्वपूर्ण सबक है।

At the LHF facility. Source: Facebook

अंत में वह कहतें हैं, “वर्तमान स्थिति से मुझे यह जानने में मदद मिली है कि महामारी के लिए हम और कैसे बेहतर तरीके से तैयार रह सकते हैं। जैसे, आवश्यक उपकरण से लेकर रोगियों के लिए अलग कमरों की संख्या, मरीज़ों को आइसोलेट करने और उनके इलाज की प्रक्रिया पर काम और अस्पताल के कमरों को कीटाणुरहित करने की सख्त प्रक्रिया। हालांकि, मैं डॉक्टरों, नर्सों, अस्पताल के सफाईकर्मियों, एम्बुलेंस ड्राइवरों, पुलिस कर्मियों, एयरलाइन कर्मचारियों और महामारी के मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहे लोगों के प्रति अपना आभार भी व्यक्त करना चाहूंगा। अपने परिवारों से दूर हो कर वह इस लड़ाई को कर्तव्य की भावना के साथ लड़ रहें हैं।”

मूल लेख: रिनचेन नोरबू वांगचुक

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संपादन – अर्चना गुप्ता


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