तीन दोस्तों ने “वर्क फ्रॉम साइकिल” का निकाला नया जुगाड़, घूमते रहे देश, करते रहे काम

Work From Cycle

कोरोनो महामारी के कारण आज वर्क फ्रॉम होम एक न्यू नॉर्मल बन गया है। कई लोगों को घर से काम करने में काफी आनंद आ रहा है तो कई लोगों को यह ऊबाऊ लग रहा है। ऐसे में, महाराष्ट्र के तीन दोस्तों ने Work From Cycle का ट्रेंड शुरू कर, कुछ अलग करने का प्रयास किया है।

यह पिछले साल दिसंबर की बात है। तीन दोस्त बैक्सन जॉर्ज, एल्विन जोसेफ और रतीश भालेराव तमिलनाडु के मुपंदल क्षेत्र में साइकिलिंग करने के दौरान, किसी जगह पर रूकने का फैसला करते हैं।

यहाँ के खूबसूरत नजारों को अनदेखा करते हुए, जॉर्ज ने जल्दी से अपना लैपटॉप खोला, अपने बालों को कंघी की और अपने वर्क स्टेशन को सेट किया। तेज हवाओं के बावजूद, उन्होंने अपना ब्रीफ दिया और दिन की रिपोर्ट को पेश किया।

इसके बाद, 31 वर्षीय जॉर्ज ने गाँव के बारे में कुछ अलग महसूस किया। क्योंकि, यहाँ हर एक किलोमीटर पर कई पवनचक्कियां (विंडमिल) नज़र आ रहे थे। उन्होंने गूगल किया, तो उन्हें पता चला कि यह 3000 विंडमिल के साथ, एशिया का सबसे बड़ा विंडमिल क्लस्टर है।

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बैक्सन जॉर्ज, एल्विन जोसेफ और रतीश भालेराव

यह वाकया उनकी रोमांचक यात्रा को संक्षेप में बयां करता है। दरअसल, महाराष्ट्र के तीन दोस्तों ने ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कॉन्सेप्ट को एक नया आयाम देते हुए, ‘वर्क फ्रॉम साइकिल’ के ट्रेंड को शुरू करने का फैसला किया।

यह तिकड़ी, 21 नवंबर 2020 को अपने घर से साइकिल यात्रा पर निकली और वे 24 दिनों में कन्याकुमारी तक पहुँच गए। 

इस दौरान, उन्होंने 1,687 किलोमीटर की दूरी तय की और एक दिन के लिए भी ऑफिस के काम को नहीं छोड़ा।

वे हर दिन सुबह 4 बजे से औसतन 80 किमी साइकिल चलाते थे। फिर, 11 बजे तक पहाड़, राजमार्ग या खेत, जहाँ कहीं भी वे हो,  वहां अपना वर्क स्टेशन सेट करके अपना काम पूरा करते थे।

क्या था विचार

जॉर्ज कहते हैं, “महामारी के दौरान हम घर पर काम करने से ऊब गए थे और काफी हताश थे। कुछ महीने बाद हम परिस्थितियों में ढल गए। इसलिए हमें यकीन था कि हम अपनी नौकरी से समझौता किए बिना, कहीं से भी काम कर सकते हैं। हमारे ऑफिस ने हम पर विश्वास किया और हमने अपनी पूरी यात्रा के दौरान उनके इस विश्वास को बनाए रखा।”

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जॉर्ज एक डिजिटल मीडिया फर्म और एल्विन एक लॉजिस्टिक्स कंपनी के लिए काम करते हैं, जबकि रतीश एक फ्रीलांसर हैं। यहाँ वे अपनी यात्रा का अनुभव साझा कर रहे हैं:

मजबूत मानसिकता जरूरी

अंबरनाथ के रहने वाले जॉर्ज इससे पहले भी कई साइकिल यात्रा कर चुके हैं। एक शौकिया साइकिलिस्ट के तौर पर, वह हमेशा दक्षिण भारत की यात्रा करना चाहते थे। 

लॉकडाउन के दौरान, उन्होंने वर्क फ्रॉम साइकिल का मन बनाया। बाद में, उन्होंने अपने दो करीबी दोस्तों से पूछा कि क्या वे इसमें रुचि रखते हैं। 

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इसे लेकर एल्विन कहते हैं, “रतीश और मेरे पास न तो कोई साइकिल थी और न ही साइकिल यात्रा का कोई अनुभव। हमारी एकमात्र प्रेरणा एक ऊबाऊ दिनचर्या से बाहर निकल, नए स्थानों पर घूमने और अच्छा समय बिताने की थी। इस दौरान हमारे पास यह परखने का भी मौका था कि क्या यात्रा के दौरान अपने काम को जारी रखना संभव है।”

इसके बाद, बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के दोनों ने जॉर्ज पर विश्वास जताया और नई साइकिल खरीद कर, कल्याण से अपनी यात्रा पर निकल गए।

हर किसी ने एक छोटे से बैग में 4-5 जोड़े कपड़े, रिपेयर किट लैपटॉप और चार्जर जैसे गैजेट लिए।

काम पहली प्राथमिकता

ऑफिस टाइमिंग का ख्याल रखते हुए, उन्होंने हर दिन सुबह 4 बजे से 11 बजे तक, साइकिल चलाने, इसके बाद एक अस्थायी कार्यस्थल (makeshift workplace) सेट अप बनाने और शाम को किसी निकटतम होटल में रूकने का फैसला किया। 

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शुरुआत में, वे कोस्टल रूट पर ही साइकिलिंग करना चाहते थे। लेकिन, नेरुल के पास रतीश की साइकिल टूट गई। इसलिए, उन्हें नई साइकिल खरीदने के लिए अपना रास्ता बदलना पड़ा और फिर वे राष्ट्रीय राजमार्ग 44 से आगे बढ़े।

उनके लिए, शुरुआती कुछ दिन आसान नहीं थे। उन्होंने दूरियों को तय करने में कई गलतियाँ की और दर्द के कारण वे ज्यादा गति से साइकिल नहीं चला पा रहे थे। लेकिन, किसी ने न तो शिकायत की और न ही मिशन को खत्म करने का विचार किया।

लॉकडाउन के कारण ढाबे हों या रेस्टूरेंट, अधिकांश जगह खाली थी और मालिक उनका काफी स्वागत कर रहे थे। वे अपने सभी उपकरण चार्ज करते थे, अपने सगे-संबंधियों को वीडियो कॉल करते थे और यहाँ तक कि दोपहर में झपकी भी ले ही लेते थे। 

शाम 5 बजे के बाद, साइकिल पर अपने होटल की ओर चल देते थे।

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जॉर्ज कहते हैं, “हम काफी मिल-जुल कर काम करते थे। यदि किसी के पास ज्यादा काम होता था तो हम ढाबे पर बैठ कर, उनके काम खत्म होने का इंतजार करते थे। हम किसी जरूरी फोन या ईमेल का जवाब देने के लिए बीच सड़क पर रुक जाते थे। जॉब हमारी पहली प्राथमिकता थी।” 

रोमांच से भरा रहा सफर

जब उनसे पूछा गया कि क्या घंटों साइकिल चलाने के बाद, वे थक कर चूर हो जाते थे, तो जॉर्ज उत्साहित होकर कहते हैं, “इसके उलट, हम साइकिल चलाने के बाद खुद को ऊर्जावान महसूस करते थे। हम हर दिन नई जगह की तलाश में रहते थे। इससे हमें कड़ी मेहनत और काम को जल्दी खत्म करने की प्रेरणा मिली।”

उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती, हर दिन सस्ता और साफ-सुथरा होटल ढूंढना था। साथ ही, हर दिन होटल बदलने से उन्हें नये लोगों से मिलने और कई नये व्यंजनों को चखने का मौका भी मिलता था।

अपनी इस यात्रा के दौरान वे पुणे, सतारा, कोल्हापुर, बेलगाम, हुबली, दावणगेरे, बेंगलुरु, सेलम, माधुरी और तिरुनेलवेली जैसे कई स्थानों से होकर गुजरे।

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अपने गंतव्य यानी कन्याकुमारी पहुँचने के बाद, उन्होंने अपने दिन का काम पूरा किया और स्थानीय पर्यटन स्थलों की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ से वे ट्रेन से अपने घर लौटे। इस पूरी यात्रा के दौरान, हर किसी को महज 25 हजार रुपए का खर्च आया। 

जॉर्ज का कहना है कि लंबी दूरी की साइकिलिंग शारीरिक से अधिक मानसिक खेल है। 

वह कहते हैं, “आपका शरीर आपका साथ नहीं देगा, रास्ते में आपके सामने कई चुनौतियाँ आयेंगी। लेकिन, एक मजबूत मानसिकता और सही व्यवहार से आपको इससे निपटने में मदद मिलेगी। सही समय, अच्छी साइकिल या दोस्तों आदि का इंतजार किये बिना, साइकिलिंग करना शुरू करें। इसके लिए आपको सिर्फ साधारण साइकिल और मजबूत मानसिकता की जरूरत है।”

मूल लेख – गोपी करेलिया

संपादन – प्रीति महावर

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