घर से ही शुरू होती है बच्चों की पहली पाठशाला इसलिए ध्यान रखें ये बातें

बच्चों के साथ-साथ माता पिता को भी काउंसलिंग की आवश्यकता हो सकती है। यदि बच्चे में किसी प्रकार का असामान्य बदलाव या संवेदनशील स्थिति नज़र आये तो काउंसलिंग लेने में देर न करें।

अभी कुछ दिन पहले राजस्थान के एक अखबार में खबर प्रकाशित हुई थी कि 12 साल के बच्चे ने अपने ही साथी नाबालिग बच्चे को गोली मार दी। खबर के अनुसार उसके हाथ में ऐसा खतरनाक हथियार थमाने वाले भी उसके अपने ही परिजन थे। इतना ही नहीं यह नाबालिग बच्चा सोशल मीडिया पर अपने गुस्से से भरी पोस्ट भी लगातार डाल रहा था।

इतनी कच्ची उम्र में इतनी हिंसक सोच और ऐसा आक्रामक व्यवहार कैसे सीख रहे हैं बच्चे? यह बेहद चिंताजनक है। हम सब यह समझें कि बच्चों के जीवन को संवारने, संबल देने और इनकी सुरक्षा करने की हम सबकी जिम्मेदारी है। परिवार से ही बच्चों को सही मार्गदर्शन और शिक्षा मिले तो बचपन को भटकाव से बचाया जा सकता है। बचपन में परिवार से मिली सही सीख बच्चों का भविष्य संवार सकती है, तो बच्चे की छोटी-छोटी गलतियों को अनदेखा करने की लापरवाही उसे किसी बड़ी गलती की ओर धकेलने का रास्ता बनती है।

असामाजिक व्यवहार की ओर बढ़ रहे बचपन को सही दिशा देने की ज़रूरत है। बच्चों के व्यवहार व सोच के विकास में कहीं न कहीं हम सभी ज़िम्मेदार हैं। हम ही जाने अनजाने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भाषा, व्यवहार और सोच से बच्चों को ऐसे व्यवहार सिखा रहे हैं।

मनोवैज्ञानिक वैलेंटीन के अनुसार,किशोरावस्था अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाज़ुक समय है। इतनी संवेदनशील अवस्था में माता-पिता,परिवार और समाज को जागरूक होने की महती आवश्यकता है |

पारिवारिक और सामाजिक वातावरण सुधारना होगा

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वातावरण में वे सब बाह्य तत्व आ जाते हैं ,जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरम्भ करने के समय से प्रभावित किया है”- वुडवर्थ (मनोवैज्ञानिक )

मनोवैज्ञानिक स्टेनली हॉल के अनुसार “किशोरावस्था प्रबल दबाव, तनाव, तूफ़ान व संघर्ष का काल है।” वहीं मनोवैज्ञानिक बच्चों के व्यक्तित्व  विकास में वातावरण को  सबसे महत्वपूर्ण कारक मानते हैं। जहाँ पर बच्चे का शारीरिक विकास हो रहा है उसी समय,उसी स्थान पर उसका मानसिक विकास भी हो रहा है। इसलिए उनकी सोच, व्यवहार और संवेदनाओं पर वातावरण का गहरा असर पड़ता है। बच्चों के व्यक्तित्व पर घर,स्कूल और समाज के माहौल का बहुत गहरा असर होता है। आज के वर्चुअल दौर में बच्चों की गतिविधियों पर माता-पिता की निगरानी की ज्यादा ज़रूरत है। जब घर के लोगों को बच्चा गुस्से और हिंसक व्यवहार करते देखता है तो वह उसके माइंड में फीड हो जाता है और फिर वह गुस्सा,आवेश,गलत भाषा, हिंसक व्यवहार को ताकत की निशानी समझने लगता है।

हम कैसी परवरिश बच्चों को देना चाहते हैं

बच्चों के सामने संयत व्यवहार करें। शालीन भाषा बोलें। इसकी शुरुआत हमारे घरों से ही हो सकती है। हम बच्चों को कैसा पारिवारिक और सामाजिक वातावरण देना चाहते हैं, यह हम पर निर्भर है।

मानसिक स्वास्थ्य व मेंटल हाइजीन पर अधिक ध्यान दें

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि किशोरावस्था में इस तरह के असामाजिक व्यवहार देखने में आते हैं। इस अवस्था में उसके व्यक्तित्व का विकास संवेगात्मक, मानसिक ,शारीरिक, सामाजिक आदि कई पक्षों से होना शुरू होता है। आमतौर पर जब कोई किशोर उम्र में इनमें से किसी भी पक्ष के साथ समायोजन करने में असफल होता है तो वह इस तरह के असामाजिक व्यवहार की तरफ़ बढ़ जाता है। मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार “इस तरह के आक्रामक व्यवहार के पीछे बच्चे के कई दमित संवेग और इच्छाएं भी हो सकती हैं।”

मनोवैज्ञानिक सी.डब्लू.बीयर्स ने अपनी पुस्तक “ए माइंड दैट फाउंड इटसेल्फ” में दुनिया में पहली बार मानसिक आरोग्य (मेंटल हाईजीन) शब्द के बारे में लिखा। इसका मतलब है कि हम जो भोजन खाते हैं उसमें तो  हाइजीन का ध्यान रखते हैं किन्तु हमारा मन,दिमाग,आँख,कान क्या खा रहे हैं इस पर ध्यान नहीं देते। बच्चे बहुत कुछ बिना सिखाये ही आत्मसात कर रहे हैं। उन्हें नहीं मालूम सही और गलत क्या है। हमें ही मेंटल हाईजीन के प्रति सजग होना होगा खुद के लिए भी और बच्चों के लिए भी। इस कच्ची उम्र में बच्चे कभी-कभी संवादहीनता के कारण भी बहुत उग्र या फिर अवसादग्रस्त होकर गंभीर मानसिक रोगों का भी शिकार हो जाते हैं, इसलिए बच्चों के साथ बातचीत करना ज़रूरी है। उसे सफल व्यक्ति बनने की बजाय अच्छा इंसान बनने की सीख दें।

बच्चों को रचनात्मक कार्यों व स्किल एजुकेशन से जोड़ें

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निम्न आय वर्ग के माता-पिता अपने बच्चे की शिक्षा और अच्छी परवरिश के बारे में नहीं पहले रोटी के बारे में सोचता है। रोटी के लिए वह खुद जिस तरह का श्रम करते हैं उसी में बच्चों को भी शामिल कर लेते हैं। कई बार जब बच्चे अपनी आवश्यकता पूरी नहीं कर पाते तो किसी न किसी अपराधिक प्रवृति की ओर आकर्षित होकर गैरकानूनी काम कर बैठते हैं। किशोरों  को स्किल बेस्ड एजुकेशन देने से उनकी ऊर्जा को  सही  दिशा मिल पायेगी। रोज़गार परक शिक्षा प्रदान कर बच्चों की कार्यक्षमताओं को बढ़ाया जा सकता  है| जब किशोर कुछ बेहतर सीखने में और रचनात्मक गतिविधि में व्यस्त होगा तो निश्चित ही वह गलत बातें  सीखने से बचा रहेगा  और अपने बेहतर भविष्य के निर्माण की नींव तैयार करने में आगे बढ़ता भी रहेगा।

काउंसलिंग एवं परामर्श लेने से ना झिझकें

हमें बच्चों की उर्जा को सही दिशा में देने की ज़रूरत है। ऐसे संवेग और तनाव की अवस्था से गुज़र रहे बचपन को बचाना बेहद ज़रूरी है। बच्चों के साथ-साथ  माता पिता को भी काउंसलिंग की आवश्यकता हो सकती है। यदि बच्चे में किसी प्रकार का असामान्य बदलाव या संवेदनशील स्थिति नज़र आये तो काउंसलिंग लेने में देर न करें। हो सकता है बच्चा मन ही मन किसी बात से परेशान हो। कई बार इस उम्र में बच्चे परिजनों द्वारा की गई सामान्य बातचीत में वह बातें नहीं बता पाते हैं जो उन्हें मन के किसी कोने में परेशान कर रही होती हैं। कई बार बच्चों पर एग्जाम में ज्यादा मार्क्स लाने का दबाव इतना बढ़ जाता है कि वे कम मार्क्स आने को विफलता मान लेते हैं। इसके चलते या तो अवसादग्रस्त हो जाते हैं या व्यवहार में चिड़चिड़ापन और आक्रामकता बढ़ जाती है। दोनों ही स्थितियाँ ठीक नहीं है, इसलिए बच्चे की अपनी क्षमताओं को विकसित करने में सहयोग करें।

बच्चों से जुड़े कानूनों की जानकारी बच्चों को देना ज़रूरी है 

  • वैश्विक स्तर पर बात करें तो भारत ने 1992 में UNCRC (बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन,1989) पर हस्ताक्षर किये हैं,जिसका अर्थ है कि भारत बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ,स्वास्थ्य देखभाल और अच्छा जीवन-स्तर के मानकों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है जिससे सुरक्षित और सहायक वातावरण में बच्चों का सम्पूर्ण विकास हो सके।
  • जो बच्चे 15 से 18 के बीच आयु वर्ग के हैं जे जे कानून 2000 (किशोर न्याय अधिनियम ) इन्हें किसी भी प्रकार के शोषण व हिंसा से सुरक्षा देता है। यह अधिनियम “बालकों द्वारा विधि के उल्लंघन” की रोकथाम एवं उपचार की दिशा में एक विशेष द्रष्टिकोण के साथ किशोर न्याय प्रणाली के दायरे में सुरक्षा, उपचार और बच्चों के पुनर्वास के लिए एक रूपरेखा प्रदान भी करता है। विधि  से संघर्षरत यह आयु वर्ग सबसे अधिक हिंसा और शोषण का शिकार होता है
  • पोक्सो एक्ट 2012 की जानकारी भी बच्चों को दी जानी चाहिए एवं बच्चों के लिए काम कर रही संस्थाओं की जानकारी एवं ज़रूरी फ़ोन नंबर भी बच्चों को बताने चाहिए।आज के वर्चुअल दौर में बच्चों को साइबर  कानून की जानकारी देना भी बेहद ज़रूरी है। सोशल मीडिया से जुडी अहम जानकारी बच्चों को होनी चाहिए।
  • जे जे एक्ट बच्चों के लिए अत्यंत प्रगतिशील कानून माना  जाता है और इस कानून के नियम भी 2007 में बना लिए गए थे ताकि यह प्रभावशाली तरीके से लागू हो पाए। इसकी भी जानकारी बच्चों को होनी चाहिए।

बच्चों को  कानूनों की जानकारी न होने के कारण वे इस तरह की गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। बच्चों को बच्चों से जुड़े कानूनों की जानकारी भी सरल तरीकों से दी जानी चाहिए। नुक्कड़ नाटक,लघु फिल्मों,लघु वृतचित्रों व रोचक कार्यशालाओं के माध्यम से कानूनों व उनसे जुडी विभिन्न जानकारियों को साझा कर बच्चों में कानूनी जागरूकता बढाई जा सकती है। शिक्षण संस्थाओं  व सामाजिक संस्थाओं  को  किशोरों के परिवारों से संपर्क कर उन्हें भी कार्यशालाओं में शामिल करना चाहिए ,ताकि वे भी कानून व उनसे जुडी जानकारियों को समझ कर अपने रिश्तेदारों और अन्य लोगों से साझा कर कानूनी जागरूकता बढ़ा सकते हैं| जे. जे. बोर्ड  व सी. डब्लू. सी.,राज्य बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग  भी इस तरह के कानूनी जागरूकता कार्यक्रमों की योजना बना कर उनका क्रियान्वयन करवा सकते हैं। हम सब ये समझें कि बच्चों के जीवन को संवारने,सम्बल देने और इनकी सुरक्षा करने की हम सबकी, समाज की साझी जिम्मेदारी है।

लेखिका- हेमलता शर्मा

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