इस महिला के हौसलों ने दी बाड़मेर को अंतरराष्ट्रीय पहचान, घूँघट से निकल तय किया रैंप वॉक का सफ़र!

आज रुमा देवी के साथ 22, 000 से भी ज़्यादा महिला कारीगर जुड़ी हुई हैं।

राजस्थान सरकार द्वारा आयोजित राजस्थान हेरिटेज वीक में देश-विदेश के फैशन डिज़ाइनर्स अपने डिज़ाइनर कपड़ों, जूलरी आदि का कलेक्शन जाने-माने लोगों के सामने पेश करते हैं। टॉप मॉडल्स एक से एक डिज़ाइनर ड्रेसेस में रैम्प पर उतरती हैं। लोग उन्हें निहार ही रहे होते हैं कि उनकी नज़र मॉडल्स और डिज़ाइनर्स के साथ रैम्प वॉक कर रही एक राजस्थानी महिला पर पड़ती है।

राजस्थानी वेश-भूषा से सुसज्जित, पूरे आत्म-विश्वास के साथ रैम्प वॉक करती हुई इस महिला और इसके जैसी अन्य महिलाओं पर सबकी आँखें आश्चर्य से टिक जाती हैं। बाद में पता चलता है कि ये सभी महिलाएँ राजस्थान के बाड़मेर जिले से हैं और सालों से राजस्थानी संस्कृति और सभ्यता की पहचान बन चुकी परिधान कला को अपने हुनर से सहेज रही हैं।

हेरिटेज वीक में भागीदारी का यह सिलसिला साल 2015 से शुरू हुआ था और आज भी जारी है। ये महिलाएँ बाड़मेर स्थित ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान की हैं और अपनी अध्यक्ष रुमा देवी के नेतृत्व में सफलता की नई उंचाइयों को छू रही हैं। कुछ समय पहले ही राष्ट्रपति ने रुमा देवी को साल 2018 के नारी शक्ति पुरस्कार से नवाज़ा है।

आज द बेटर इंडिया पर रुमा देवी की कहानी पढ़कर आपको भी यकीन हो जाएगा कि राजस्थान में बाड़मेर के छोटे-से गाँव रावतसर से आने वाली 30 वर्षीया यह महिला वाकई नारी-शक्ति का प्रतीक है।

रुमा देवी

5 साल की छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने अपनी माँ को खो दिया और पिता की दूसरी शादी के बाद अपने ताऊ-ताई के साथ रहीं। “हमारे यहाँ गांवों में ज़्यादातर औरतों और लड़कियों को सिलाई-कढ़ाई का काम आता है। मैंने भी अपनी दादी से यह काम सीखा। पर कभी भी ऐसे बाहर जाकर काम नहीं किया, बस घर पर अपने कपड़े बनाने तक ही यह हुनर सीमित था।” द बेटर इंडिया से बात करते हुए रुमा ने कहा।

घर की कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते आठवीं कक्षा के बाद उनकी पढ़ाई छुड़वा दी गई और फिर गाँव के रिवाज़ के मुताबिक साल 2006 में 17 साल की उम्र में उनकी शादी हो गयी। पर शादी के बाद भी रुमा की ज़िंदगी की परेशानियां खत्म नहीं हुईं। उनके ससुराल वाले खेती-बाड़ी पर निर्भर थे, जिसमें कोई खास बचत नहीं थी। ऐसे में, एक संयुक्त परिवार का निर्वाह कर पाना मुश्किल था।

“घर की स्थिति ऐसी हो गई थी कि मैं सोचती थी कि अगर मुझे कोई छोटे से छोटा काम भी मिल जाए तो कर लूँ। किसी भी तरह मैं बस घर के हालात सुधारना चाहती थी। पर रेगिस्तान में जहाँ पानी, शिक्षा, और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के लिए भी मीलों चलकर शहर जाना पड़ता है, वहां मुझे क्या काम मिलता।” रुमा देवी ने कहा।

साल 2008 में रुमा ने अपनी पहली संतान को जन्म दिया। पर उनका बेटा सिर्फ़ दो दिन की ज़िंदगी ही लेकर आया था। गाँव में ढंग का कोई अस्पताल नहीं था और शहर ले जाया जाए, इतने पैसे नहीं थे। अपने बेटे को खोने का दर्द रुमा बर्दाश्त नहीं कर पा रही थीं।

उन्होंने बताया, “मेरे बेटे के जाने का मुझे बहुत सदमा लगा था। उस वक़्त अगर हालत ठीक होते तो हम ज़रूर उसे बचा लेते। इसके बाद मुझे घर में अकेले खाली बैठने में बहुत घुटन होने लगी। मुझे इस सबसे बाहर निकलना था और फिर मैंने काम करने की ठानी।”

उन्होंने अपने हुनर को ही अपने रोज़गार का ज़रिया बनाया। उनके आस-पड़ोस में औरतें सिलाई-कढ़ाई का काम तो करती ही थीं, लेकिन उन्हें उनके काम के हिसाब से पैसे नहीं मिलते थे। कोई ग्राहक उनसे अपने कपड़े थोड़े से गेहूँ या चावल के बदले सिलवा लेता, तो बहुत बार बिचौलिए उनकी मेहनत की कमाई के पैसे खा जाते।

इसलिए रुमा देवी ने फ़ैसला किया कि अपने बनाए हुए समान की बिक्री का ज़िम्मा भी वे खुद ही उठाएंगी। उन्होंने आस-पड़ोस की लगभग 10 महिलाओं को इकट्ठा करके उनके साथ एक स्वयं-सहायता समूह बनाया। उन सबने 100-100 रुपए इकट्ठा करके एक सेकंड हैंड सिलाई मशीन खरीदी। फिर उन्होंने अपने प्रोडक्ट्स तैयार करना शुरू किया।

“प्रोडक्ट्स तो हम बना रहे थे, पर सबसे ज़्यादा ज़रूरी था हमें बाज़ार मिलना। इसलिए मैंने दुकानदारों से बात की और जैसे-तैसे उन्हें मनाया कि वे सीधा हमसे ही प्रोडक्ट्स लेकर बेचें। इस तरह धीरे-धीरे हमें काम मिलना शुरू हुआ।”

महिला कारीगरों के साथ रूमा देवी

काम के सिलसिले में ही साल 2009 में रुमा देवी ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान जा पहुंची। उन्हें पता चला कि यह संगठन भी हैंडिक्राफ्ट प्रोडक्ट्स बनवाता है और बाज़ारों तक पहुंचाता है। यहाँ पर उनकी मुलाक़ात संगठन के सचिव विक्रम सिंह जी से हुई। रुमा ने विक्रम सिंह जी को अपने काम के बारे में बताया और कहा कि वे न सिर्फ़ उनके लिए प्रोडक्ट्स बनाएंगी, बल्कि बाड़मेर के अन्य गांवों से भी महिला कारीगरों को उनके साथ जोड़ने में मदद करेंगी।

इस तरह रुमा और उनकी साथी महिलाएँ इस संगठन का हिस्सा बन गईं। यहाँ पर काम करते हुए रुमा ने अन्य कार्यों में भी सहयोग देना शुरू किया। वे मीलों चलकर गाँव-गाँव जातीं और वहाँ पर महिलाओं को अपने साथ काम करने के लिए कहतीं।

“मैं चाहती थी कि जिस तरह मैं अपने पैरों पर खड़ी हो रही थी, वैसे ही और भी महिलाएँ आत्म-निर्भर बनें। गरीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी जैसी कोई भी परेशानी हो, इस सबकी सबसे ज़्यादा शिकार औरतें होती हैं। उन्हें न तो अपना दर्द किसी से कहने का मौका मिलता है और न ही वो अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले कर सकती हैं।”

ज़िंदगी के लिए हर दिन जद्दोज़हद कर रहीं महिलाओं तक उन्होंने घर बैठे ही रोज़गार पहुँचाया। हालांकि, यह बिल्कुल भी आसान नहीं था। जब भी रुमा और उनकी कुछ साथी गाँव के किसी भी घर में पहुँचतीं तो घर के मर्द उन्हें अंदर नहीं आने देते थे। वे लोग उन्हें दुत्कारते। उन्हें लगता कि ये उनके घर की औरतों को बिगाड़ देंगी।

पर रुमा के हौसले के आगे उन्हें झुकना पड़ा। रुमा कभी हार नहीं मानतीं। अगर उन्हें एक घर में नहीं आने दिया, तो वे दूसरे घर का दरवाज़ा खटखटातीं और उस परिवार को समझातीं कि महिलाओं को संगठन में आने की भी ज़रूरत नहीं है। उन तक घर पर ही काम पहुँचाया जाएगा और वे अपने खाली समय में सिलाई-कढ़ाई कर सकती हैं। इसके बाद प्रोडक्ट्स लेने के लिए भी संगठन से ही कोई न कोई आएगा।

धीरे-धीरे महिलाएँ उनसे जुड़ने लगीं और फिर जब इन महिलाओं को उनकी मेहनत के पैसे मिले तो गाँव के लोग भी रुमा देवी पर भरोसा करने लगे।

“कभी जो महिलाएँ दो वक़्त के खाने का भी बंदोबस्त नहीं कर पाती थीं, आज वे 7-8 हज़ार रुपए महीने की कमाई कर अपना घर चला रही हैं। कम से कम अपने बच्चों को स्कूल भेज पा रही हैं। बस, यही देखकर मुझे बहुत सुकून मिलता है और सही मायनों में यही मेरी जीत हैं।” रुमा देवी ने गर्व से कहा।

साल 2010 के अंत तक उन्होंने लगभग 5, 000 महिला कारीगरों को संगठन से जोड़ दिया। गाँव के लोगों का और महिलाओं का रुमा के प्रति विश्वास और सम्मान देखकर उन्हें ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान का प्रेसिडेंट बनाया गया।

प्रेसिडेंट की पोस्ट मिलने के बाद रुमा पर और भी जिम्मेदारियां आ गईं। उनके लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी था कि वे कैसे अपने कारीगरों की मेहनत और हुनर को एक बड़े मंच तक ले जाएँ। दिल्ली में आयोजित एक-दो प्रदर्शनी में तो वे लोग गये थे, लेकिन रुमा चाहती थीं कि देश-विदेश तक लोग बाड़मेर और बाड़मेर की औरतों के हाथ के इस हुनर को जानें।

इसके लिए उन्होंने अपना स्तर बढ़ाया। सामान्य प्रोडक्ट्स के साथ-साथ उन्होंने अपनी कारीगरों को कुछ अलग बनाने के लिए प्रेरित किया। परम्परागत सिलाई-कढ़ाई को उन्होंने आधुनिक फैशन से जोड़ा। राजस्थान में जहाँ भी प्रदर्शनी या फिर क्राफ्ट्स मेले लगते, हर जगह ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान पहुँच जाता।

उन्होंने बताया, “मैं खुद अपनी कुछ कारीगर महिलाओं और विक्रम जी के साथ अपने प्रोडक्ट्स लेकर जाती। वहां लोगों को अपने काम के बारे में, किसी भी प्रोडक्ट की ख़ासियत के बारे में बताती। साथ ही, और क्या हम नया कर सकते हैं, यह भी जानने की कोशिश करती।”

साल 2015 में विक्रम सिंह और रुमा देवी के प्रयासों से ही उन्हें ‘राजस्थान हेरिटेज वीक’ में आने का मौका मिला। यहाँ पर जब उनके बनाए कपड़ों को पहनकर अंतरराष्ट्रीय फैशन डिज़ाइनर अब्राहम एंड ठाकुर, साथ ही भारत के प्रसिद्ध डिजाइनर हेमंत त्रिवेदी आदि के मॉडल्स ने रैम्प वॉक किया और उनके साथ खुद रुमा और उनकी सहयोगी कारीगर महिलाएँ रैम्प पर उतरीं, तो यहाँ पर आये सभी लोगों की नज़रें उन पर ठहर गईं।

फैशन शो में रुमा देवी

इस के बाद रुमा और उनके संगठन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। साल 2016 में हुए फैशन वीक के लिए खुद 5 बड़े डिज़ाइनर्स ने उनसे संपर्क किया और उनके डिजाइन किए हुए परिधान बनाने के लिए कहा। इतना ही नहीं, रुमा के नेतृत्व में ये राजस्थानी महिलाएँ अब तक जर्मनी, कोलम्बो, लंदन, सिंगापुर, थाईलैंड जैसे देशों के फैशन शो में भी भाग लेकर अपनी छाप छोड़ चुकी हैं।

अब इस संगठन के प्रोडक्ट की मांग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है। आज रुमा देवी के साथ 22, 000 से भी ज़्यादा महिला कारीगर जुड़ी हुई हैं।

रूमा ने कहा, “मेरे लिए यही सबसे बड़ी उपलब्धि है कि हमने 10 महिलाओं से लेकर 22,000 महिलाओं तक का सफ़र तय किया है। अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों के साथ-साथ हम फैब इंडिया और रिलायंस जैसे घरेलू ब्रांड के साथ भी काम कर रहे हैं। समस्याएं आज भी बहुत हैं, आज भी यहाँ घूँघट प्रथा है, आज भी औरतों को घर से बाहर निकलने पर रोक है, लेकिन ख़ुशी है कि अब महिलाएँ खाली नहीं बैठना चाहतीं। हमारे पास कई जगहों से महिलाएँ और लडकियाँ आकर काम सीखती हैं और हमसे जुड़ना चाहती हैं।”

पर अभी भी सीमित साधन होने के चलते यह संगठन हर एक कारीगर को काम नहीं दे सकता। इसलिए ये लोग उन्हें काम सिखाकर 10 या 12 महिलाओं का एक स्वयं सहायता समूह बनवा देते हैं और उन्हें सीधा ग्राहकों से जोड़ देते हैं, ताकि उन्हें काम मिलता रहे।

आज रुमा देवी का एक छह साल का बेटा है, जो अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहा है। उनके काम करने के फ़ैसले में उनके परिवार ने हर पाल साथ दिया और आज उनके साथ से ही रुमा न सिर्फ़ अपनी, बल्कि हज़ारों महिलाओं की ज़िंदगी में बदलाव का कारण बनी हैं।

अंत में वे सिर्फ़ इतना ही कहती हैं कि मुश्किलें तो आती ही हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा ज़रूरी है हौसला रखना। हौसला होगा तो आप हर बार आगे बढ़ेंगी। औरतों के खाली बैठने से कुछ नहीं होगा, बल्कि किसी भी महिला को, जो कुछ भी आता हो, वह करना चाहिए। अपने हाथ के हुनर को अपनी पहचान बनाइए और आत्म-निर्भर बनिए।

संपादन: मनोज झा 


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