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इस शिक्षक की कोशिशों से आज पानी से भरी है राजस्थान की नौ चौकी झील!

श्रीमाली ने सुझाव दिया कि पूरा ढेर नहीं हटाकर बीच में से एक झिरी निकाल दी जाए, ऐसा करने में कोई भारी बजट भी नहीं लगेगा, साथ ही जनधन की कोई हानि का ख़तरा भी नहीं होगा। स्थानीय प्रकृति प्रेमियों के दबाव में प्रशासन ने सुझाव को मंजूरी दे दी।

मारे देश की संस्कृति नदियों के किनारे पनपी और विकसित हुई है। आज भी गाँवों में पुराने जमाने के बने तालाब मौजूद हैं सोचिए, यदि हमारे बुजुर्गों ने नदी, झील, तालाब, बावड़ी और कुंड नहीं बनाए होते तो हमारा क्या होता! जितना हम इन जल स्त्रोतों का इस्तेमाल करते हैं, उतना ही हमारा दायित्व बनता है कि इनका सरंक्षण भी करें।

 

आज हम दिनेश श्रीमाली के बारे में जानेंगे, जिन्होंने अपने मज़बूत इरादों की बदौलत राजसमंद झील को सूखने से बचाने में कामयाबी हासिल की।

दिनेश श्रीमाली

विकास की बहती गंगा में हाथ धोते लाखों मिल जाएंगे, लेकिन जीवन में ख़ुशहाली लाने वाली स्थानीय नदियों-झीलों को सूखने से बचाने वाले दिनेश श्रीमाली जैसे लोग विरले ही होंगे।

अपनी संघर्ष यात्रा को ‘झील के जख़्म’ जैसी पुस्तक में पिरोकर केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा व्यक्तिगत श्रेणी में ‘राष्ट्रीय भूमि जल संवर्धन पुरस्कार’ प्राप्त करने वाले श्रीमाली ने अरसे तक झील को सूखने से बचाने के लिए जद्दोजहद की है। इस कर्मवीर ने अपने शहर की जख़्मी झील की पीड़ा को कुछ यूं बयां किया –

मैं 1989 से राजसमंद झील और गोमती नदी के जलागम क्षेत्र की सुरक्षा के लिए एक व्यापक अभियान चलाकर कार्य कर रहा हूँ। झील सूखने की नौबत कैसे आई, यह समझने से पूर्व कुछ बातें जानना जरूरी है। 1982 के आसपास राजसमंद जिले में मार्बल की खानों में खनन का काम तेजी से बढ़ा। तब मकराना से निकले संगमरमर से अंतरराष्ट्रीय बाजार की मांग पूरी नहीं हो पा रही थी। शुरुआती दौर में 1990 तक तो बहुत ही अव्यवस्थित और अवैज्ञानिक तरीके से खनन कार्य किया गया। इस गैरज़िम्मेदाराना रवैये से न तो व्यापारियों को ही लाभ हुआ और न ही आम आदमी को सस्ता मार्बल मिल सका, बल्कि इससे पर्यावरण के हालात और बिगड़ गए।”

 

कथित विकास बनाम विनाश

 

वे आगे बताते हैं, “यह वह दौर था जब औद्योगिक विकास की जरूरत बताकर सिंचाई विभाग से अनापत्ति प्रमाणपत्र लिए बगैर ही पूंजीपतियों को ऐतिहासिक राजसमंद झील के वाटर कैचमेंट इलाके में खानों के प्लॉट आवंटित कर दिए गए। जब झील की नहरों में रुकावट के कारण पानी की आवक कम हुई, मुझे तब ही आशंका हो गई। मेरी आशंका 1994 से 2006 के बीच सही निकली।”

ताज्जुब तो इस बात का है कि इन सालों में अच्छी और पर्याप्त बारिश हुई, लेकिन झील को लबालब भरने वाली गोमती नदी का पानी झील तक पहुँच ही नहीं रहा था।

हालात इस कदर बिगड़े कि राजसमंद झील की स्थापना के 324 साल के इतिहास में पहली बार 2000 में करीब 3750 मीट्रिक घनफीट क्षमता वाली यह जीवनदायिनी झील सूख गई।

झील के पेंदे में तड़की मिट्टी को देखकर पर्यावरण प्रेमियों के दिल टूटने लग गए। दिनेश को लगा कि अब केवल छिटपुट प्रयासों से काम नहीं चलेगा। अब यदि इस झील को फिर से जीवन लौटाना है तो एक आंदोलन करना होगा।

 

झील क्या सूखी, दिल ही टूट गए… 

 

द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए श्रीमाली ने बताया,“जैसे ही झील सूखी, मेरी मानसिक स्थिति भी झील की तरह कमजोर होकर सूखने की कगार पर आ गई। मैंने सालों से चली आ रही परंपराओं की शरण ली। मुझे पता था कि तालाबों के पेंदे की गाद (पणा) खेतों में डाली जाती रही है। मैंने किसानों को इस मुहिम से जोड़कर इस मिशन को आगे बढ़ाने और झील के पेंदे की गाद को निकालने की सोची। मैंने एक योजना बनाकर जिला प्रशासन के समक्ष रखा, जिसे बाद में गैर-व्यावहारिक कहकर पल्ला झाड़ लिया गया। मैंने फिर भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। मैंने अपने कुछ विश्वसनीय साथियों को साथ लेकर तय किया कि हम हर रोज़ पांच तगारी मिट्टी बाहर निकालने से अभियान की शुरुआत करेंगे।”

जैसा सोचा था, उसी के अनुरूप अभियान शुरू किया गया। दिनेश के मुताबिक 16वें दिन जयपुर के जीटीवी रिपोर्टर पीयूष मेहता ने उनके द्वारा किए जा रहे इस काम पर रिपोर्ट बनाकर प्रसारित कर दी। इसका फायदा यह मिला कि अब उनके साथ जिला प्रशासन सहित कई स्वयंसेवी संस्थान भी जुड़ने आ गए। 18वें दिन उनके इस मिशन में साथ देने के लिए 10,000 से भी ज्यादा लोग सूखी हुई झील में श्रमदान के लिए उतर चुके थे।

 

मुंबई फिल्म उद्योग से महेश भट्ट और अक्षय कंचन भी आ गए थे। इनकी उपस्थिति में उन्होंने एक ज्ञापन तैयार किया और ‘पानी पंचायत’ का गठन हुआ। हालांकि, इसमें सिर्फ 60 आदमी ही जुटे, लेकिन रिजल्ट बेहतरीन रहा।

 

दो महीने बाद दिनेश को जिला प्रशासन ने बुलाया और ‘ऑपरेशन भागीरथी’ की शुरुआत की। इस ऑपरेशन के तहत गोमती नदी के प्रवाह क्षेत्र में छापरकड़ी स्थान से जितनी मार्बल स्लरी नदी के पेटे में जमी हुई थी, उसे हटाने का कार्यक्रम उन्होंने बनाया। यह इतना आसान नहीं था राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 पर पुलिया के आसपास उन्हें बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ा

2005 में एक घटना घटी। पास ही के बामण टूंकड़ा नामक स्थान के पास कई खान मालिकों ने पिछले कुछ सालों में मार्बल स्लरी का पहाड़-सा खड़ा कर दिया था। पड़ासली-गोमती चौराहा-केलवा के इलाके में पसरे इस ढेर को ढहाने से भारी जानमाल की हानि का डर था। तत्कालीन जिला कलेक्टर वैभव गालरिया ने इस नाजुक स्थिति को देखकर ऐसा करने से साफ मना कर दिया।

श्रीमाली ने सुझाव दिया कि पूरा ढेर नहीं हटाकर बीच में से एक झिरी निकाल दी जाए, ऐसा करने में कोई भारी बजट भी नहीं लगेगासाथ ही जनधन की कोई हानि का ख़तरा भी नहीं होगा। स्थानीय प्रकृति प्रेमियों के दबाव में प्रशासन ने सुझाव को मंजूरी दे दी।

तकरीबन 10,000 टन मार्बल स्लरी हटाकर 3 दिनों में एक झिरी निकाली गई, पानी को आगे बढ़ने का रास्ता मिला। अगले 2-3 सालों  में औसत बारिश हुई। 2009 में अच्छी बरसात होने पर झिरी वाले स्थान से बहकर गोमती व खारी नदी का पानी आया। इस बार राजसमंद झील करीब 19 फीट तक भर गई।

 

परेशानियां आती रहीं, कारवाँ चलता रहा…

 

पर्यावरण प्रेमियों का यह ग्रुप खान एरिया से पानी आवक के मार्गों से हर साल मिट्टी हटाता रहा बरसात आने पर नाले, नहरें पुनः मिट्टी से अवरुद्ध होती रहीं। इस परेशानी का स्थायी समाधान ढूंढना बेहद जरूरी था। राष्ट्रीय राजमार्ग 8 पर रावला पसूंद के पास मुख्य सड़क पर 4-4 फीट पानी भर जाता था, सड़कें पूरी तरह टूट जाती थीं और वाहन फंस जाते थे। पानी यूं ही भाप बनकर उड़ जाता था।

इस पर उन्होंने सुझाव देकर पुलिया के पास 18-18 फीट के गहरे गड्ढे खुदवाए, जिनमें लम्बे पाइप डलवाए गए। ऐसा काम 35 स्थानों पर हुआ। इस प्रयोग से बेकार पानी भी जलागम क्षेत्र में पहुँचने लगा यह हमारी बड़ी जीत थी।

 

इस तरह अंजाम दिया काम को…

 

शिक्षक श्रीमाली बताते हैं, हमने इस अभियान के दौरान कभी भी किसी भी फर्म से नकद चंदा नहीं मांगा। हमने सदैव यह प्रस्ताव दिया कि आप अपनी सीमा में आने वाले कूड़ा-कचरा, पत्थर-स्लरी को हटाने का खर्चा ख़ुद ही वहन करें। हमारे इस सुझाव में अनुचित कुछ भी नहीं था, इसलिए सबको मानना पड़ा। धीरे-धीरे सभी सावधानी बरतने लग गए। अब तो मार्बल माइंस एसोशिएसन के सदस्य भी ख़ुद इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन करने लग गए हैं।

उनकी मानें तो यह बात सही है कि वे इस पूरे आंदोलन में संघर्ष का रास्ता अपनाने की बजाय समन्वयवादी बनकर सफल हुए हैं। चूंकि मार्बल माइनिंग अब इस इस इलाके की रोज़ीरोटी बन चुकी है, इसलिए कोई भी सरकार इसे बंद नहीं कर सकती। जलागम क्षेत्रों की सफाई कभी खत्म नहीं होगी। फ़िलहाल झील में 6 फीट पानी है।

दिनेश श्रीमाली से संपर्क करने के लिए आप उन्हें  09414176733 पर कॉल कर सकते हैं। अथवा उनसे फेसबुक पर जुड़ सकते हैं।

 

संपादन – मनोज झा


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