जहाँ बिजली भी नहीं पहुँचती, वहाँ आदिवासी भाषाओं में जानकारी पहुँचाते हैं ये पत्रकार!

'आदिवासी जनजागृति' ने पिछले 3 महीनों में न सिर्फ कोरोना पर जागरूकता लाने का काम किया है बल्कि फेक न्यूज, मजदूरों की समस्या सहित इस दौरान बढ़े करप्शन को भी उजागर किया है।

शायद ही कभी क्षेत्रीय भाषाओं में सूचनाओं का आदान-प्रदान इस कदर हुआ होगा जिस तरह कोरोना संक्रमण के दौरान हुआ है। लगभग हर भाषा में कोविड-19 को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाई गई। तकनीक ने इसे और सुलभ बनाते हुए हर तबके तक पहुँच दिया। मगर हमारे देश में अब भी कई ऐसे गाँव हैं, जहाँ तकनीक की कमी और लोकल भाषा में कंटेन्ट ना होने की वजह से सूचनाएँ पहुँच ही नहीं पातीं या फिर सही तरीके से अपना असर नहीं दिखा पातीं। महाराष्ट्र राज्य का नंदुरबार जिला उन्हीं जगहों में से एक है।

पूर्णतः आदिवासी बाहुल इस जिले में आज भी कई ऐसे गाँव हैं जहाँ सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। बिजली और मोबाईल नेटवर्क ना होने की वजह से इस जिले के कई गाँवों तक सरकारी योजनाओं की जानकारी नहीं पहुँच पाती। कोरोना के दौरान जब लगभग हर भाषा में सूचनाएँ उपलब्ध हैं तब भी यहाँ की आदिवासी भाषाएँ जैसे पावरी, भीलोरी तथा आहयरनी में इस बारे में कोई भी जानकारी नहीं थी।

इसी बात को ध्यान में रखकर, इसी जिले के धड़गांव तालुका के कुछ युवाओं ने एक अनोखा काम शुरू किया है। ये युवा कोरोना के विषय में जागरूकता लाने के लिए अपनी आदिवासी भाषा में वीडियोज़ बनाकर और उन्हें लोगों को दिखाकर जागरूकता लाने का काम कर रहे हैं।

short films in local language
स्थानीय भाषा में वीडियो बनाते युवा

कैसे हुई थी मिशन की शुरुआत

आदिवासी जनजागृति ने पिछले 3 महीनों में न सिर्फ कोरोना पर जागरूकता लाने का काम किया है बल्कि फेक न्यूज, मजदूरों की समस्या सहित इस दौरान बढ़े करप्शन को भी उजागर किया है। इस काम की शुरुआत वर्ष 2017 में एक फेलोशिप प्रोजेक्ट पर धड़गाँव आए नितेश भारद्वाज ने की थी। उन्होंने यहाँ के 10 युवाओं को  छोटी छोटी-फिल्म बनाना सिखाया और अपनी आवाज को लोगों तक पहुँचाने का एक रास्ता दिखाया। इस बारे में नितेश बताते हैं, “यहाँ आने के बाद मुझे महसूस हुआ कि सही सूचनाओं के अभाव में लोग सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते, उनके खुद के विकास के लिए किए जा रहे कामों में उनकी भागीदारी नहीं है और इन सबके पीछे वजह है सूचनाओं का सही तरीके से आदान प्रदान न होना। आदिवासी भाषाओं में शायद ही किसी मीडिया में कुछ देखने सुनने को मिलता है, इसलिए बहुत जरूरी है कि हम लोकल भाषाओं में भी कंटेन्ट तैयार करें। इससे सूचना ग्रहण करने वाला भी खुद को ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस करेगा। आदिवासी जनजागृति शुरू करने की वजह भी यही थी। आज आदिवासी जनजागृति न सिर्फ नंदुरबार बल्कि आस पास के जिलों की भी लोकल खबरें दिखाता है और उनकी समस्याओं को उठाता है”।

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ग्रामीण से बातचीत करते नितेश भरद्वाज

मोबाइल बना इन युवाओं के मिशन का सहारा   

अपने  मिशन के तहत नितेश से प्रशिक्षित युवक पिछले तीन सालों से नंदुरबार और आस-पास के जिलों में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं। ये युवक अपने क्षेत्र की समस्याओं पर लोकल भाषा में फिल्म, न्यूज, शार्ट वीडियोज़ और इंटरव्यू बना कर लोगों के बीच जाते हैं और उस विषय पर लोगों में जनजागृति लाने का काम करते हैं। इस पूरे काम की सबसे खास बात यह है कि इस काम को ये युवक पूरी तरह से मोबाइल फोन पर करते हैं।

कोरोना संक्रमण के दौरान जब लोगों के पास सही जानकारी को होना बेहद ज़रूरी है, तब इनके इस कार्य को काफी सराहा जा रहा है। इस विषय पर बात करते हुए इसी टीम के सदस्य अर्जुन पावरा ने बताया, “हम पिछले तीन सालों से स्वास्थ्य, शिक्षा, खेती सहित कई प्रमुख मुद्दों पर शॉर्ट फिल्म्स बना कर अलग-अलग गांवों में लोगों को प्रोजेक्टर के माध्यम से अपनी वीडियोज़ दिखाते रहे हैं। हम सरकार की अलग अलग योजनाओं के संबंध में भी लोगों को फिल्मों के माध्यम से बता रहे हैं। कोरोना संक्रमण के दौरान हमने यह देखा कि लोगों के मन में इसको लेकर जानकारी का अभाव है।”

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इस तरह स्क्रीनिंग भी की जाती है.

वह आगे बताते हैं, “इसी बात को ध्यान में रख कर हमने कोरोना पर वीडियोज़ बनाना भी शुरू कर दिया। इन वीडियोज़ को हम सोशल मीडिया के माध्यम लोगों तक पहुँचा रहे हैं। जिन गांवों में नेटवर्क की समस्या है वहाँ हमारे वालन्टीयर लोगों को ये वीडियोज़ उनके फोन में दे रहे हैं।”

आदिवासी जनजागृति के साथ 50 से अधिक लोग 200 गाँवों में काम कर रहे हैं। ये लोग हफ्ते में एक बार नेटवर्क वाले ज़ोन में जाकर इन वीडियोज़ को एक दूसरी टीम के पास भेजते हैं, जो इन वीडियोज़ को मोबाईल पर हीं एडिट कर शेयर कर देते हैं।

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मोबाइल पर वीडियो बनाते टीम के सदस्य राकेश

क्या कहते हैं गाँव वाले

इन युवाओं के काम को लेकर बात करते हुए हरनखुरी गाँव की वसीबाई मोचड़ा पावरा ने बताया, “पावरी (आदिवासी बोली) में वीडियो होने की वजह से हमें इसमें कही गई बातें आसानी से समझ में आ जाती हैं। कोरोना के विषय में, खासकर हम महिलाओं में आदिवासी जनजागृति की वजह से ही समझ बन पाई है। शुरुआत में इसको लेकर बहुत सारी बातें बताई गई थीं जैसे गर्म पानी से नहाने से कोरोना नहीं होगा, लहसुन खाने से नहीं होगा, धूप में खड़े रहने से कोरोना नहीं होगा और भी बहुत कुछ। मगर आदिवासी जनजागृति वीडियो के माध्यम से हमें बताया कि ये सब गलत बातें हैं और इन बातों का कोई प्रमाण नहीं है।” वसीबाई मोचड़ा पावरा उन हजारों लोगों में से एक हैं जिनको आदिवासी जनजागृति के कोविड-19 पर बनाए हुए अलग अलग वीडियोज़ का फायदा हुआ।

आदिवासी जनजगृति ने अपने वीडियोज़ के सहारे धड़गाँव तालुका के कई गाँवों की समस्याओं को उजागर करने का काम किया है। उन्हीं में से एक आमखेड़ी गाँव के धनसिंग पावरा बताते हैं, “हमारे गाँव में पानी की समस्या बहुत सालों से थी, आदिवासी जनजागृति ने इस बारे में वीडियो बनाकर लोगों और प्रशासन को इस समस्या से अवगत कराया। आदिवासी जनजागृति के दखल देने की वजह से आज हमारे गाँव में ग्राम पंचायत निधि (पंचायत फंड) से 6 बोरेवेल का निर्माण हुआ है जिससे हमारे गाँव के पानी की समस्या दूर हो चुकी है।”

आदिवासी जनजागृति ने धड़गाँव में अपनी एक अलग पहचान बना ली है। इस बारे में टीम के सदस्य दीपक पावरा बताते हैं “हमारी फिल्में धड़गाँव नगर पंचायत, जिला प्रशासन और बाकी विभाग भी दिखाते हैं। कोरोना की हमारी वीडियोज़ को आरोग्य विभाग ने भी इस्तेमाल किया है। इसके पहले “स्वच्छ भारत अभियान” पर बनाई हुई हमारी फिल्म को भी नंदुरबार जिला प्रशासन ने पूरे जिले में दिखाया था। हमारी एक वीडियो में खुद नंदुरबार कलेक्टर ने संदेश दिया हुआ है। हमारी वीडियोज़ की वजह से न सिर्फ आम लोगों को बल्कि प्रशासन को भी फायदा हो रहा है।”

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युवाओं द्वारा लोगों के लिए बनाई गयी फिल्म की टीम

आदिवासी जनजागृति के काम से न सिर्फ लोगों में जागरूकता आ रही है, बल्कि गाँव के युवाओं को समाज के विकास में भाग लेने का मौका भी मिल रहा है। आज जब मुख्यधारा की मीडिया गाँवों से दूर हो रही है तब आदिवासी जनजागृति जैसी संस्थाओं की जरूरत और ज्यादा बढ़ रही है। कोरोना के इस दौर में जब फेक न्यूज अपने चरम पर है और आदिवासी भाषाओं में सूचनाओं की कमी है, तब इस तरह की ग्रामीण पत्रकारिता हमारे गांवों के लिए वाकई एक वरदान जैसा है।

लेखिका – अनुजा पेंडसे
(अनुजा पेंडसे एक सोशल वर्कर हैं और पिछले तीन सालों से मेंटल हेल्थ पर गुजरात और महाराष्ट्र के आदिवासी और ग्रामीण बहुल इलाकों मे काम कर रही हैं। अनुजा ने टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से मेंटल हेल्थ मे मास्टर्स किया है। अपने काम के अलावा वह सामाजिक मुद्दों पर लिखती रहती हैं।)

संपादन- पार्थ निगम

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