दिल्ली जैसे बड़े शहर में अपने गाँव से पलायन करके काम की तलाश में पहुंचे लोग- सिक्यूरिटी गार्ड, होटलों में वेटर का काम करने वाले, गार्डनर या फिर साफ़-सफाई का काम करने वाले लोगों के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। क्योंकि उनके माता-पिता उनकी शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकते हैं।
इस बारे में बहुत ही कम डाटा उपलब्ध है, लेकिन 2013 में आई यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में माइग्रेंट बच्चों की संख्या लगभग डेढ़ सौ लाख है। आज तो यह संख्या काफी बढ़ चुकी होगी। दिनभर काम के चलते उनके माता-पिता उनकी देखभाल नहीं कर सकते और अक्सर इन बच्चों आप ट्रैफिक सिग्नल पर घूमते हुए देखेंगे। ऐसे में, इन बच्चों के साथ कुछ गलत होने की सम्भावना तो रहती ही है, साथ ही ये बच्चे बहुत ही कम उम्र से नशे और शराब की लत का शिकार भी हो जाते हैं।
पर ऋचा प्रशांत जैसे कुछ सजग नागरिकों के प्रयासों से ऐसे बहुत से बच्चों को आज एक अच्छी ज़िन्दगी मिल रही है। इन बच्चों का भविष्य संवरा हुआ हो, इसलिए उन्होंने अपने अच्छे-खासे कॉर्पोरेट करियर को भी छोड़ दिया। साल 2009 में उन्होंने हेव्लेट पैकर्ड कंपनी में अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़ दी और द सुनय फाउंडेशन की नींव रखी।
दिल्ली में स्थित इस सामाजिक संगठन का उद्देश्य गरीब और ज़रूरतमंद तबके से आने वाले बच्चों, महिलाओं और उनके समुदायों को शिक्षा देकर, स्किल ट्रेनिंग देकर भविष्य में अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करना है। जैसे-जैसे ऋचा का यह काम बढ़ा, लोग उनसे जुड़ने लगे और हर दिन उनका यह परिवार बढ़ने लगा।
उनके कुछ वॉलंटियर्स स्कूल बैग, क्रेयॉन्स का बन्दोबस्त करते हैं तो कुछ बच्चों के मिड-डे मील की ज़िम्मेदारी अपने पर लेते हैं। आज सुनय के साथ लगभग 100 वॉलंटियर्स काम कर रहे हैं और उनकी कोशिशों से पिछले एक दशक में हज़ारों ज़िंदगियाँ संवरी हैं।
आज यह फाउंडेशन, दिल्ली, कोलकाता और बिहार के वैशाली में अपने सेंटर्स के ज़रिये 300-400 बच्चों को मुफ्त में शिक्षा, किताबें, स्टेशनरी, स्कूल यूनिफार्म, और साथ ही, मिड-डे मील भी उपलब्ध करा रही है। जब से उन्होंने काम शुरू किया है, यहां पर एक लाख से भी ज़्यादा मिड-डे मील, 1000 कंबल और 1, 500 स्कूल यूनिफार्म बांटे गए हैं। उन्होंने अब तक लगभग 500 बच्चों का स्कूलों में भी दाखिला कराया है।
“हमारा मुख्य उद्देश्य 3 से 17 साल के बच्चों को एक सुरक्षित वातावरण देना है। यह प्ले स्कूल के क्रेच जैसा है, एक प्रीप्रेटरी स्टेज प्लेटफार्म की तरह, जहां हम उन्हें औपचारिक शिक्षा के लिए तैयार करते हैं। इन लोगों के पास अपने बच्चों को छोड़ने के लिए कोई सुरक्षित जगह नहीं है। मैं यह गारंटी तो नहीं दे सकती कि ये सब बच्चे स्कूल जायेंगे, लेकिन दिन के चार घंटों की ज़िम्मेदारी हमारी है कि उन्हें खाना खिलाया जायेगा, शिक्षा मिलेगी और उनका पूरा ध्यान रखा जायेगा,” ऋचा ने द बेटर इंडिया को बताया।
उन्होंने आगे कहा, “अभी हमारे पास 300- 400 बच्चे हैं। फिर ये माता-पिता, साल में अलग-अलग समय पर जैसे फसल काटने के समय, कुछ और काम की तलाश में या फिर किसी की शादी के लिए, शहर से गाँव, गाँव से शहर पलायन करते रहते हैं। ऐसे में बच्चों की संख्या कम- ज्यादा होती रहती है। लेकिन कभी-कभी बच्चों की संख्या 500 तक भी जाती है। सामान्य तौर पर, हमारे वसंत कुंज के तीन सेंटर पर 300- 350 बच्चे हैं और कोलकाता में 50 बच्चे हैं।”
पिछले दस सालों में वे लगभग 500 बच्चों को फॉर्मल स्कूल में दाखिला दिलाने में कामयाब रहे हैं। बाकी EWS कोटा के चलते बच्चों को शहर के नामी स्कूल, जैसे कि वसंत वैली, जीडी गोयनका, डीपीएस वसंत कुंज आदि में भी दाखिला मिला है।
“मैं जब पहली बार सुनय आई थी तब मैं बहुत छोटी थी और मुझे यह भी नहीं पता था कि मुझे पढ़ने का मौका भी मिलेगा या नहीं। फिर, मैडम हमारी लाइफ में आयीं। वो हमें घर से स्कूल लेकर आतीं। हमने पढ़ना शुरू किया और पिछले आठ सालों में हम बहुत आगे आये हैं, बहुत कुछ सीखा है,” यह कहना है सरकारी स्कूल में पढ़ रही रचना का, जो आठ साल की उम्र में सुनय में आई थीं।
“हम सब यहाँ परिवार की तरह हैं। मैडम, हमारी परेशानियाँ सुनती हैं और उन्हें हल करने की कोशिश करती हैं। उनसे मुझे भी इस तरह का एक स्कूल शुरू करने की प्रेरणा मिली है; मैं चाहती हूँ कि मेरे जैसे सभी बच्चों को पढ़ने का मौका मिले और उनकी ज़िन्दगी बदले,” रचना ने आगे कहा।
ऋचा के साथ 100 वॉलंटियर्स काम कर रहे हैं, जिनमें 8 से 80 साल तक की उम्र के लोग शामिल हैं। वे लोग हर सम्भव तरीके से काम करते हैं – चाहे फिर फण्ड इकट्ठा करने की बात हो या फिर ज़मीनी स्तर पर चल रही हमारी गतिविधियों में भाग लेने की। नौ सालों से यह फाउंडेशन निजी डोनेशन पर चल रही है जो कि दोस्तों, परिवार, रिश्तेदारों या फिर कुछ नेक लोग दे रहे हैं। यह फाउंडेशन पूरी तरह से वॉलंटियर्स के काम पर निर्भर है।
ऋचा बताती हैं कि बच्चों के साथ-साथ वे महिलाओं की ज़िन्दगी में भी एक बदलाव चाहती हैं। इसलिए वे महिलाओं को स्किल ट्रेनिंग करवाकर उन्हें काम करने के लिए प्रेरित करती हैं। कुछ महिलाएं उनके अपने सेंटर में टीचर, मोटिवेटर और कोऑर्डिनेटर के रूप में काम कर रही हैं।
यहाँ पर बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं दिया जाता बल्कि उन्हें कई अन्य तरह के सेमिनार और वर्कशॉप में भी ले जाया जाता है। उन्हें नशे के बारे में जागरूक किया जाता है, लिंग भेदभाव पर वर्कशॉप होती हैं। समृद्ध तबके के लोग उन्हें पढ़ाने आते हैं और उनके लिए कहानी सुनाने के सेशन भी रखे जाते हैं।
अनीता होलानी, एक गृहिणी हैं और सुनय के ज़रिये बच्चों को पढ़ाने के अपने शौक को पूरा कर पा रही हैं। वह कहती हैं, “एक शिक्षक/मेंटर/वॉलंटियर के रूप में यह सफ़र बहुत खुबसूरत है। हम चाहेंगे कि ज्यादा से ज्यादा लोग सुनय से जुड़ें और अपने टैलेंट को हमारे साथ साझा करें।”
इस फाउंडेशन को अब दोस्तों और परिवार के बाद कुछ अन्य संगठनों का सपोर्ट भी मिल रहा है। अब वे अपने मौजूदा केंद्रों की क्षमता बढ़ाने के अलावा, दिल्ली में कम से कम छह और स्थानों पर यह कार्यक्रम लागू करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, उनकी सिर्फ यही कोशिश है कि दिल्ली जैसे शहर में कोई भी बच्चा अपने माँ-बाप के काम पर जाने के बाद इधर-उधर न भटके।
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