जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, प्राकृतिक वस्त्रों और सिंथेटिक कपड़ों को लेकर फर्क करना सीख जाते हैं। प्राकृतिक कपड़े, सिंथेटिक कपड़ों के विपरीत पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुँचाते हैं, क्योंकि यह रसायन मुक्त और आसानी से विघटित होने योग्य होते हैं। लेकिन ऊन का क्या?
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ऊन को पालतू भेड़ों से प्राप्त किया जाता है, लेकिन दुनिया भर में विशेषज्ञों और पशु अधिकार कार्यकर्ताओं ने इससे संबंधित कई चिंताओं को उजागर किया है। भेड़ों के बाल से ऊन बनाने के दौरान “म्यूलिंग” नाम के प्रक्रिया को अपनाया जाता है, जिसके तहत “फ्लाईस्ट्राइक” को रोकने के लिए उनके त्वचा को छिल दी जाती है।
ऐसी स्थिति में, सवाल उठता है कि क्या पशु अधिकारों के उल्लंघन के बिना प्राकृतिक ऊन प्राप्त करने का कोई तरीका है? आज हम आपको जिस शख्स के बारे में बताने जा रहे हैं उन्होंने इसका समाधान निकाल लिया है।
तमिलनाडु के कुइलापालयम (ऑरोविले के नजदीक) गाँव के रहने वाले गौरी शंकर इस समस्या का एक अनूठा समाधान निकाला है। 34 वर्षीय गौरी फैबॉर्ग के संस्थापक हैं, जो औषधीय पौधे आक से ऊन बनाने के लिए जानी जाती है।
बहुआयामी गुणों से संपन्न आक का पौधा
कई वर्षों तक फैशन इंडस्ट्री में काम करने के बाद, शंकर ने उन तरीकों पर गौर किया, जिससे पटसन और केला जैसे पौधों से सस्टेनेबल फैब्रिक निकाले जा सकते हैं। इसी विचार के साथ, उन्होंने साल 2015 फैबॉर्ग की स्थापना की, इसके साथ-साथ वह कई अन्य कंपनियों के लिए फ्रीलांसर के तौर पर भी काम कर रहे थे। लेकिन, साल 2017 में उन्हें पहली बार आक से फेब्रिक बनाने का विचार आया।
“यह अप्रैल महीने के दोपहर का वक्त था। मैं खिड़की के पास बैठ कर बस यूँ ही बाहर झाँक रहा था। इसी दौरान मैंने कुछ देखा। एक झाड़ी के पास 10-15 सनबर्ड इस खास रेशे का इस्तेमाल कर एक घोंसला बना रहे थे। इससे मुझे विचार आया कि क्या इस प्राकृतिक रेशे से कपड़ा बनाया जा सकता है,” शंकर द बेटर इंडिया से कहते हैं।
इसके बाद, महीनों के शोध और प्रयोगों के बाद, फैबॉर्ग ने ऊनी कपड़ों के लिए एक विकल्प के तौर पर “वेगनूल” की शुरूआत की। इस रेशे को बनाने में सभी प्रक्रियाएं सस्टेनेबल होती है, यहाँ तक कि इसी रंगाई के लिए पौधों के प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है।
इस पूरी प्रक्रिया को जीरो वेस्ट बनाने के लिए शंकर ने पौधों को लेकर कई अध्ययन किए और उन्होंने पाया कि एक बार रेशा प्राप्त होने के बाद, पौधों के जो कम्पोनेन्ट बचे हुए थे, उनका इस्तेमाल तरल निकालने के लिए किया जा सकता है।
शंकर बताते हैं, “पुराने समय में, पौधे के अर्क का इस्तेमाल कीटों से बचाव के तौर पर किया जाता था। इसमें एंटीफंगल और एंटीबैक्टीरियल गुण भी होते हैं। हमने यह भी पाया कि इसके पौधे को ज्यादा खाद-पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके अलावा, इससे दूसरे पौधों को भी बढ़ने में मदद मिलती है।”
इस प्रकार, शंकर ने साल 2018 अपने “अर्क” की शुरुआत की, जो एक जैव-उर्वरक और कीटनाशक है और किसान इसका इस्तेमाल रसायन मुक्त खेती के लिए कर सकते हैं।
अर्क के कई अन्य लाभ भी हैं। इसे नीम, यूकेलिप्टस और लेमनग्रास जैसी जड़ी-बूटियों को मिलाकर बनाया गया है, जिसका इस्तेमाल मच्छरों को भगाने में भी किया जा सकता है।
फिलहाल, फैबार्ग हर महीने करीब 150 किलो धागे का उत्पादन करते हैं, जिसकी आपूर्ति जर्मनी के इन्फैंटियम विक्टोरिया जैसे सस्टेनेबल डिजाइन ब्रांडों को की जाती है। इसके अलावा, गुच्ची, लुई वुइटन, अलेक्जेंडर मैक्वीन जैसे डिजाइनर लेबल से भी इंक्वायरी की गई है। इनमें से अधिकांश ब्रांड रेशे के कश्मीरी जैसी बनावट को पसंद कर रहे हैं, जो ऊन बनाने के लिए बिल्कुल उपयुक्त है।
इसके अलावा, करीब 22 किसान, जिनके पास कुल 130 एकड़ जमीन है, अपनी फसल की देखभाल के लिए “अर्क” का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसे किसानों को 70 प्रतिशत सस्ती रियायती दर पर उपलब्ध कराया जा रहा है। साथ ही, इसका इस्तेमाल करीब 30 कैफे, होटल और रेस्तरां द्वारा मच्छरों को भगाने के लिए भी किया जा रहा है।
बुनकर परिवार में हुई परवरिश
तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई जिले के देवांगा समुदाय के एक बुनकर परिवार में जन्मे शंकर, एक ऐसे माहौल में पले-बढ़े जहाँ कपड़ों को कड़ी मेहनत के साथ तैयार किया जाता था। इसके बाद, जब वह हाई स्कूल में थे, तो उन्होंने टेक्सटाइल में वोकेशनल कोर्स कर, आगे बढ़ने का फैसला किया।
“मैं अपने माता-पिता को कपड़ों को बुनने और तानने में मदद करता था। मैं हैंडलूम से घिरा हुआ था और इसलिए यह कुछ ऐसा था, जिसे मैं भूल नहीं सकता था,” शंकर कहते हैं।
बाद में, हॉस्टल और पर्यटन क्षेत्र में रुचि जागने के बाद, शंकर ने चेन्नई स्थित ईएमपीईई इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड कैटरिंग टेक्नोलॉजी से गृह विज्ञान और होटल प्रबंधन में बीएससी करने का फैसला किया।
इसके बाद, अन्नामलाई विश्वविद्यालय से 2017 में मास्टर ऑफ टूरिज्म करने के बाद, उन्होंने करीब डेढ़ साल तक एक होटल में बारटेंडर में काम किया। फिर, साल 2012 में उन्होंने चेन्नई के एक फैशन हाउस में बतौर व्यापारिक प्रबंधक काम करना शुरू किया। यहाँ, उन्होंने फैशन उद्योग के ट्रेंड्स के बारे में सीखा।
एक लंबे अरसे तक फैशन उद्योग में काम करने के बाद, उन्हें एहसास हुआ कि रेशे को प्राप्त करने से लेकर इसे रंगने तक में, कितने बड़े पैमाने पर प्रदूषण होता है। इससे उन्हें टेक्सटाइल के वैकल्पिक साधनों के बारे में विचार करने की प्रेरणा मिली।
शंकर कहते हैं, “मैंने पाया कि पटसन और केले के रेशे काफी अच्छे थे, लेकिन इसका कोई विशेष मूल्य नहीं था। यदि हम इसके साथ, बाजार में उतरते, तो हमारे लिए जगह बनाना काफी मुश्किल होता।”
इसके बाद, चिड़ियों को आक के पौधे पर अपना घोंसला बनाते देख, शंकर ने आक के रेशे के बारे में अधिक जानने और सीखने का प्रयास किया। इस दौरान, उन्होंने पाया कि इस पौधे से बेशक कई लाभ हैं, लेकिन सभी शोधों को उचित तरीके से समेकित नहीं किया गया था, जिससे पौधे की वास्तविक मूल्य उजागर हो।
वह बताते हैं, “आक के पौधे की देखभाल को लेकर कई अंतर हैं। हेम्प और लिनन के विपरीत, आक के रेशे को इस तरीके से संसाधित करने की जरूरत होती है कि यह अपनी ताकत न खोए।”
आक के पौधे से रेशे को दो अलग-अलग हिस्से से प्राप्त किया जा सकता है – फली और तने से।
काफी शोध-अध्ययन के बाद, उन्होंने पाया कि 70% कपास और 30% इस विशेष रेशे को मिश्रित करने के बाद, उन्हें एक ऐसा फेब्रिक हासिल हुआ, जो वूलन वियर के तौर पर बिल्कुल उपयुक्त था। इसमें सबसे अच्छी बात यह थी, इस पूरी प्रक्रिया में किसी जानवर का इस्तेमाल नहीं किया गया था।
एक बार जब उन्होंने, आक के पौधों से रेशा प्राप्त करने में सफलता पाई, तो उन्होंने इसके विभिन्न घटकों से अन्य उत्पादों को बनाना शुरू कर दिया।
वह कहते हैं, “इस पौधे में बड़े पैमाने पर माइक्रो और मैक्रो न्यूट्रिएंट्स होते हैं। हमारे अर्क में मौजूद एल्कलॉइड, पौधों को बढ़ने में मदद करते हैं। यह मिट्टी की गुणवत्ता में भी सुधार करता है और कीटों को मारे बिना ही, उसे पौधों से दूर रखता है।”
कैसे होता है संचालन
फैबॉर्ग का संचालन पांडिचेरी से 2000 वर्ग फुट में बने यूनिट से किया जाता है। फिलहाल, इसके तहत करीब 5 लोग नियमित रूप से काम करते हैं। जबकि, बुनाई कार्यों को करूर, तिरुपुर स्थित बुनकर समूहों द्वारा अंजाम दिया जाता है।
बता दें कि पांडिचेरी स्थित इकाई में, आक से रेशा निकाला जाता है और इसकी रंगाई नेचुरल डाई हाउस में की जाती है। शंकर बताते हैं कि वह पीले रंगों के लिए कददुकई जैसे पौधों का इस्तेमाल करते हैं, तो लाल रंग के लिए अनार का। यह सेवा अन्य ब्रांडों के लिए भी उपलब्ध है।
वह बताते हैं, “रेशे को पौधों से अलग करने में काफी समय लगता है और इसमें कई चरण होते हैं। एक बार पौधों को काटने के बाद, उसके स्टेम को पौधों से अलग कर दिया जाता है। फिर, तने के अंदर से एक रेशेदार सा पदार्थ निकाला जाता है और इसे पानी में उबालने के बाद इसे धूप में रखा जाता है, जिसके बाद इससे धागा निकाला जाता है।”
इस दिलचस्प प्रक्रिया ने कई ब्राडों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। उदाहरण के तौर पर, जूलिया गोडिना को लीजिए, जो बच्चों के लिए कपड़े बनाने वाली जर्मन कंपनी इन्फेंटियम विक्टोरिया की सह-संस्थापक हैं।
यह बात साल 2019 की है, जूलिया अपने इंस्टाग्राम पर कुछ स्क्रॉल कर रही थीं, इसी दौरान उन्हें फैबॉर्ग के बारे में जानकारी मिली और उत्सुकतावश उन्होंने इसके वेबसाइट को चेक किया।
बाद में, जब वह और उनके साथी, 2019 के अंतिम दिनों के दौरान भारत यात्रा की योजना बना रही थीं, तो वह फैबॉर्ग के कार्यों के बारे में गहराई से जानने के लिए, शंकर से मिलना चाहती थीं।
जूलिया बताती हैं, “अपनी पहली यात्रा के दौरान, हमने उनके पास से कुछ फेब्रिक लिए, जिससे हमने बेसिक गारमेंट बनाने का फैसला किया, जो वेगनोल के ब्यूटी और फ्लो का प्रदर्शन करे। इससे हमने हूडि, बेबी जैकेट और केप गाउन बनाए और हमें अपने क्लाइंट से अभूतपूर्व प्रतिक्रिया मिली।”
वह आगे बताती हैं, “यह नए तरीके से फेब्रिक बनाने, समुदाय के जीवन को बेहतर बनाने और मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने की एक समग्र दृष्टिकोण है। यही वजह है हम उनके फिलॉसफी को पसंद करते हैं। मुझे लगता है कि यह एक ऐसी परियोजना है, जिससे बड़े पैमाने पर बदलाव आएगा। वेगनोल एक सुंदर फेब्रिक है और यह टेक्सटाइल और कृषि उद्योग के लिए एक बड़ा अवसर है।”
इसके अलावा, इस क्षेत्र में कई ऐसे किसान हैं, जिन्होंने अपने खेत में अर्क का इस्तेमाल किया है। पांडिचेरी से लगभग 40 मिनट की दूरी पर स्थित तिंदीवनम कस्बे के रहने वाले रचना राव ऐसे ही एक किसान हैं।
करीब 2 साल पहले 29 वर्षीय रचना ने खेती करने का फैसला किया और अपनी 25 एकड़ जमीन पर खेती शुरू की। उनके अनुसार, मूल रूप से यह एक फूड फॉरेस्ट है, जहाँ आम, जामुन और चीकू जैसे कई पेड़ लगे हुए हैं। इसके अलावा, वह चावल, मूंगफली, बाजरा और दाल के साथ-साथ कई सब्जियों की भी खेती करती हैं।
वह बताती हैं, “मैं पूर्णतः प्राकृतिक खेती करती हूँ और अर्क का इस्तेमाल पिछले एक साल से कर रही हूँ। इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ी है, साथ ही पौधों को कीटों से भी बचाने में मदद मिली है। मैं इसका इसका इस्तेमाल हर दो हफ्ते में करती हूँ।”
क्या थीं मुश्किलें
अपनी इस यात्रा को लेकर, शंकर कहते हैं कि उनके लिए अभी तक सबसे बड़ी चुनौती वेगनोल को बनाने में हो रही थी।
वह कहते हैं, “इस प्रक्रिया को बिल्कुल रसायन मुक्त रखना हमारे लिए एक बड़ी चुनौती थी। एक बार जब हमने इसे सफलतापूर्वक कर लिया, तो इसका संचालन काफी आसान हो गया। एक अन्य चुनौती प्राकृतिक रंगों को ढूंढना था, लेकिन हमारे टीम में कई विशेषज्ञ हैं, जो रसायन विज्ञान से जुड़े हैं और प्राकृतिक रंगों में पीएचडी कर रहे हैं। इसके अलावा, संचालन को अंजाम देने के लिए जगह ढूंढना और कारोबार को आगे बढ़ाना, हमारे लिए अभी भी एक चुनौती है।”
शंकर कहते हैं कि वह अपने समान विचारधारा वाले लोगों के साथ काम करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। इससे उन्हें अपने उत्पादों को दूर-दूर तक पहुँचाने में मदद मिलेगी।
वह कहते हैं, “जब कोई उद्यमी अपना उद्यम शुरू करता है, तो क्यों और कैसे सवालों को पूछना जरूरी है, ताकि आपका उद्देश्य स्पष्ट हो और आप इसे पाने के लिए मजबूती से अपने कदम बढ़ाएं और अपने लिए नित नए आयाम निर्धारित करते रहें।”
क्या है भविष्य की योजना
शंकर कहते हैं कि वह अपने बिजनेस को आगे ले जाने के लिए कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं। वह न सिर्फ अपने संचालन को बढ़ावा देना चाह रहे हैं, बल्कि खुद से आक के पौधों की खेती करने के बारे में भी विचार कर रहे हैं। इससे कच्चे माल के लिए वह आत्मनिर्भर हो जाएंगे और अन्य फसलों के साथ इस पौधे को उगाने से मिट्टी की उर्वरता में सुधार हो सकता है।
वह अंत में कहते हैं, “मैं भारत में, जहाँ भी आक की खेती हो रही है, उसके हर 100 किलोमीटर के दायरे में फैबॉर्ग के लिए एक प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करना चाहता हूँ। मैं किसानों के समक्ष एक कार्यशील मॉडल विकसित करना चाहता हूँ, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सकें। इस नेटवर्क के लिए, मैं चाहता हूँ कि किसान आक के पौधे की वास्तविक क्षमता को समझें कि यह कैसे उनकी आमदनी को बढ़ा सकता है।”
मूल लेख – ANGARIKA GOGOI
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संपादन: जी. एन. झा
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