ओडिशा में पारादीप पोर्ट ट्रस्ट में बतौर इंजीनियर काम करने वाले, 46 वर्षीय अमरेश नरेश सामंत को उनके आस-पास के लोग ‘ब्रुख्या मानब’ (Forest Man) के नाम से जानते हैं। वह साल 1995 से लगातार पर्यावरण के लिए काम कर रहे हैं। लगभग 25 सालों में उन्होंने राज्य के जगतसिंहपुर (Jagatsinghpur) और केंद्रपाड़ा (Kendrapara) जिले के अलग-अलग इलाकों में 20 ‘मिनी जंगल’ लगाए हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस काम के लिए वह अपनी जेब से पैसे लगाते हैं।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “बहुत कम उम्र से ही मैंने समाज और पर्यावरण के लिए अपना जीवन समर्पित करने की ठान ली थी। इसमें मेरे परिवार ने भी मेरा साथ दिया। साल 1995 से मैंने पौधारोपण का काम शुरू किया था। तब मैं छोटे स्तर पर यह काम करता था। मैं सड़क किनारे दो-चार पेड़ लगा दिया करता था और अगर मुझे कहीं खाली जगह दिखती थी, तो वहां भी पेड़ लगा देता था। लेकिन, साल 2001 से लगने लगा कि दो-चार पेड़ों से कुछ नहीं होगा। जिस तरह से पेड़-पौधे कम हो रहे हैं, इनके लिए सिर्फ एक ही तरीका है कि हम ज्यादा से ज्यादा संख्या में पेड़ लगाएं और इनकी देखभाल करें।”
अमरेश ने अपने काम की शुरुआत, अपने आस-पास के इलाकों से ही की। पारादीप के पास स्थित बिसवाली गाँव में उन्होंने एक खाली जमीन पर जंगल लगाना शुरू किया। यह काम मुश्किल था, लेकिन उन्होंने जंगल लगाना तय कर लिया था। गाँव की खाली जमीन के अलावा, सड़क किनारे भी वह पेड़-पौधे लगाते थे। वह कहते हैं, “शुरुआत बहुत मुश्किल थी। यह तटीय इलाका है और चंद सालों के अंतराल में यहां चक्रवात या तूफान आते रहते हैं। इन चक्रवातों में लोगों के साथ-साथ पेड़-पौधों को भी बहुत ज्यादा नुकसान होता है। लेकिन इसका हल यह नहीं है कि हम पेड़-पौधे लगाना छोड़ दें।”
अक्सर लोग अमरेश को मेहनत करता देख, यह कहते थे कि क्या फायदा है यह करने का? लेकिन, अमरेश ने कभी हार नहीं मानी। उनका मानना है कि प्रकृति में संतुलन रखने का यही सबसे अच्छा तरीका है। अगर पेड़-पौधे नहीं होंगे तो ज्यादा मुसीबतें आयेंगी। इसलिए, बिना लोगों की बातों की परवाह किये, वह अपने काम में लगे रहते थे।
लोगों ने समझा प्रकृति का महत्व:
कहते हैं न कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। अमरेश ने भी लगातार तीन-चार साल बिना रुके मेहनत की और उन्हें उनके प्रयासों के लिए सराहना मिलने लगी। उनके लिए सबसे बड़ी बात यह है कि अब बहुत से लोग उनका इस काम में साथ दे रहे हैं।
वह बताते हैं, “गाँव में लोग मेरे साथ जुड़कर काम करने लगे। अन्य जगहों पर भी जब हमारा काम बढ़ने लगा तब लोगों ने सलाह दी कि हमें एक संगठन बना लेना चाहिये। इस संगठन को बनाने का सिर्फ एक ही उद्देश्य था कि एक व्यवस्थित ढंग से काम हो। इसलिए, साल 2005 में गाँव वालों के साथ मिलकर एक स्थानीय संगठन ‘बाबा बालुंकेश्वर ग्राम्य विकास परिषद’ बनाया। आज इस संगठन से सैकड़ों लोग जुड़े हुए हैं और जंगल लगाने के अभियानों में लगातार साथ दे रहे हैं।”
वह आगे बताते हैं कि पौधारोपण करना बड़ी बात नहीं बल्कि सबसे ज्यादा जरूरी है इन पौधों की तब-तक देखभाल करना, जब तक कि ये अच्छी तरह विकसित न हो जाएं। यह देखभाल बिना स्थानीय लोगों के साथ के मुमकिन नहीं हो पाती है। इसलिए, अमरेश और उनके साथी सबसे पहले जंगल लगाने की जगह का चयन करते हैं। इसके बाद, इस जगह को पौधों के लिए तैयार किया जाता है।
वह बताते हैं, “पौधारोपण शुरू करने से पहले, हम दो से तीन बार उस इलाके का दौरा करते हैं। इस दौरान, वहां के स्थानीय लोगों से मुलाकात करते हैं। उन्हें मुफ्त में पौधे भी बांटते हैं और अपने अभियान से उन्हें जोड़ने की कोशिश करते हैं। इस तरह से हमें समझ में आ जाता है कि वहां कौन से ऐसे लोग हैं, जो इस काम में भागीदारी लेने के इच्छुक हैं। इन सभी लोगों की एक टीम बनाई जाती है। जंगल के लिए पौधारोपण करने के बाद, इस टीम को इन पौधों की देखभाल करने की जिम्मेदारी दी जाती है।”
स्थानीय लोगों के अलावा, अमरेश खुद भी हर हफ्ते जाकर पौधों का मुआयना करते हैं। वह स्थानीय टीम को पौधों से लेकर खुरपी, पाइप जैसी सभी जरूरी चीजें भी उपलब्ध कराते हैं। पौधों को जानवरों से बचाने के लिए, इनके चारों ओर बांस तथा तारों से बाड़ भी लगाई जाती है। अमरेश की कोशिश रहती है कि उनके द्वारा लगाए गए पौधे विकसित होकर बड़े पेड़ बनें और हरियाली बढ़ाएं। लगभग एक-डेढ़ साल बाद, जब जंगल विकसित होने लगते हैं तो वह इनमें लकड़ी या गत्तों से बने घोसले भी लगाते हैं। पक्षियों के लिए दाना और पानी भी रखा जाता है। इससे जैव-विविधता को बढ़ाने में मदद मिलती है।
लगाए हैं 20 ‘मिनी जंगल’
अमरेश और उनकी टीम ने, अब तक 20 जगह ‘मिनी जंगल’ लगाए हैं। इनमें लुनुकूआ (Lunukula), पारादीप गढ़ (Paradeep Garh), कोठी (Kothi), बिसवाली (Biswali), अपानीया (Apania), नरेंद्रपुर (Narendrapur), उच्छबनंदपुर (Uchabanandapur), गदारोमिता (Gadaromita) जैसे गाँव शामिल हैं। इन जंगलों को वह ‘ग्राम्य जंगल’ का नाम देते हैं। वह बताते हैं, “इन जंगलों को हमने गांवों की खाली और बंजर जगहों में या सरकारी स्कूलों में खाली पड़ी जगहों में लगाया है। सबसे पहले हम जमीन के लिए स्थानीय प्रशासन और गाँववालों से मंजूरी ले लेते हैं। यहां के स्थानीय लोगों को पूरी प्रक्रिया में भी साथ रखा जाता है। इससे उनका हम पर विश्वास बढ़ता है।”
लुनुकूआ गाँव के बारे में बात करते हुए, वह बताते हैं कि अब से पांच साल पहले तक, यह गाँव लगभग बंजर हुआ करता था। हरियाली के नाम पर दो-चार पेड़ ही दिखते थे और इस परिस्थिति के लिए सिर्फ गाँववालों को या प्रशासन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। क्योंकि, लगातार आने वाली प्राकृतिक आपदाएं भी इन तटीय क्षेत्रों के गांवों के लिए मुश्किलें बढ़ाती हैं। लेकिन, अमरेश ने यहां जंगल लगाने की ठानी। उन्होंने 2015 में अपने साथियों के साथ यहां पर लगभग 3 एकड़ जमीन में पौधारोपण किया।
अमरेश के एक साथी और लुनुकूआ गाँव के निवासी मानस रंजन आर्या बताते हैं, “पौधारोपण के बाद जंगल की पूरी देखभाल की जिम्मेदारी भी अमरेश लेते हैं। सबसे पहले तो उन्होंने स्थानीय लोगों को पौधों की देख-रेख के लिए जागरूक किया। वह हर हफ्ते यहां आकर खुद भी निरीक्षण करते थे। उनके समर्पण को देखकर, हम लोगों को भी जोश और हौसला मिलता है। वह जिस विश्वास के साथ काम करते हैं, उसकी वजह से ही आज यहां, यह जंगल खड़ा हुआ है।” आज इस गाँव में 500 किस्म के पेड़-पौधे लगे हुए हैं।
इसी तरह, उन्होंने पारादीपगढ़ के एक सरकारी हाई स्कूल में भी जंगल लगाया है। पारादीप गढ़ के सरपंच, मिहिर साहू बताते हैं, “मैंने अपने गाँव के सरकारी स्कूल से ही पढ़ाई की है। उस समय स्कूल तरह-तरह के पेड़-पौधों से भरा हुआ रहता था। लेकिन पिछले कुछ सालों में यहां सिर्फ खाली जमीन ही रह गई थी। इसलिए, जब मुझसे अमरेश भाई ने सम्पर्क किया और पूछा कि जंगल लगा सकते हैं क्या? तो मैंने तुरंत हाँ कर दी।”
स्कूल में जंगल लगाने का काम साल 2017 में शुरू हुआ। अमरेश और उनकी टीम ने यहां सामान्य लकड़ी के पेड़-पौधों के अलावा, फलों के भी काफी पेड़ लगाए हैं। मिहिर कहते हैं, “पौधारोपण के बाद, अमरेश भाई के मार्गदर्शन में हमने जंगल की पूरी देखभाल की। आज यहां लगभग 1000 पेड़ हैं और अब जंगल को खास देखभाल की भी जरूरत नहीं है। हमें खुशी है कि हमारे बच्चे हरियाली के बीच पढ़ सकते हैं। साथ ही, जंगल होने से जीव-जंतुओं को भी अपना आवास मिल गया है।”
जंगल लगाने के अलावा, अमरेश अब तक लगभग 10 लाख पौधे भी ग्रामीणों को मुफ्त में बाँट चुके हैं।
आगे की योजना:
अमरेश बताते हैं कि इस साल जून से वह अपने अगले पौधारोपण अभियान पर काम करेंगे। इस बार, उनकी कोशिश महानदी के किनारे पौधारोपण करने की है। इसके साथ ही, वह ज्यादा से ज्यादा स्कूलों के साथ काम करना चाहते हैं। वह कहते हैं, “मुझे स्कूल के बच्चों के साथ काम करना बहुत अच्छा लगता है। बच्चे पूरी प्रक्रिया में हमारे साथ होते हैं। अभियान के बाद भी, वे पेड़-पौधों का ध्यान रखते हैं। जितनी कम उम्र में हम बच्चों के मन में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता के बीज डालेंगे, उतना ही अच्छा होगा। कल यही बच्चे बड़े होकर, हमारे कार्यों को आगे लेकर जायेंगे। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हम उनके आज को खूबसूरत और हरा-भरा बनाएं।”
यकीनन, पर्यावरण के प्रति अमरेश का समर्पण काबिल-ए-तारीफ है। हमें उम्मीद है कि बहुत से लोगों को उनकी कहानी से प्रेरणा मिलेगी।
संपादन – प्रीति महावर
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