१० ऐसे भारतीय जिनपर आज गाँधीजी को भी गर्व होता!

अगर आज महात्मा गाँधी जीवित होते, तो भारत के कई नागरिको से मिलकर उन्हें निश्चित ही गर्व होता। ये वो नागरिक हैं जो समाज के लिए बेहतरीन काम कर रहे हैं। ऐसे काम, जो महात्मा गाँधी के दिए हुए अनेक विचारों पर आधारित है। आईये मिलते हैं ऐसे ही १० भारतीयों से, जिनसे शायद गाँधीजी भी मिलना चाहते।

अगर आज महात्मा गाँधी जीवित होते, तो भारत के कई नागरिको से मिलकर उन्हें निश्चित ही गर्व होता। ये वो नागरिक हैं जो समाज के लिए बेहतरीन काम कर रहे हैं। ऐसे काम, जो महात्मा गाँधी के दिए हुए अनेक विचारों पर आधारित है। आईये मिलते हैं ऐसे ही १० भारतीयों से, जिनसे शायद गाँधीजी  भी मिलना चाहते।

हात्मा गाँधी ने कहा था, “मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है।

आज तक देश तथा विदेशो के कई लोग उनके विचारों से सीख ले रहे हैं तथा पूरी निष्ठा से उसका पालन भी कर रहे हैं। इनमे से कुछ तो इच्छापूर्वक कर रहे हैं पर कुछ ऐसे भी हैं जो निःस्वार्थ भाव से समाज में एक बदलाव ला रहे हैं, बिना यह जाने की उनके ये छोटे कदम गाँधी के उन बड़े विचारों का ही पर्याय है जिन्हें वो हमेशा से लोगो के जीवन में उतारना चाहते थे।

आज गाँधीजी को याद करते हुए,  हम ऐसे ही १० भारतीयों को नमन करते हैं – वो भारतीय जिन्होंने गाँधी के विचारों को अपने जीवन में उतारा है, जिनसे मिलकर गाँधी भी गर्व महसूस करते। प्रस्तुत है महात्मा गाँधी के १० वचन और उनपर अमल करते १० भारतीयों की कहानी:

१.  रौशनी डी’सिल्वा

“किसी देश की महानता को इस बात से आंका जा सकता है कि वहां पशुओ के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है।”

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आंध्र प्रदेश की रहनेवाली रौशनी डी’सिल्वा, को बचपन से ही जानवरों से बहोत लगाव था। रौशनी ने अपना जीवन आवारा जानवरों की भलाई को समर्पित कर दिया है। प्रतिदिन ये अपने शहर पुट्टपार्थी के अलग अलग कोनो में आवारा कुत्तो और बिल्लियों के लिए खाना और दवाइयां ले कर निकल जाती है। रौशनी ने अपने जीवन का लक्ष्य ही इन जानवरों की भलाई करना बना लिया है।

वे कहती हैं, “मेरा मन इनके साथ ही जुडा हुआ है।”  रौशनी ने इन जानवरों की देखभाल करने का तरीका ‘पेटा’ जैसे अलग अलग संस्थाओं के साथ काम करके सीखा है। फ़िलहाल वह जानवरों के लिए काम करने वाली एक संस्था ‘करुणा सोसाइटी’ के साथ जुडी हुई हैं। रौशनी सड़क पर चोट खाए हुए जानवरों का इलाज करती हैं फिर आगे की चिकित्सा के लिए  उन्हें ‘करुणा’ ले कर जाती है। पिछले पंद्रह सालो में इन्होने  करीब १०,००० कुत्ते, बिल्लियों, मुर्गियों, गधो, आदि जैसे जानवरों के लिए काम किया है।

२. ओमकारनाथ शर्मा

“स्वयं को पाने का सबसे अच्छा मार्ग है खुद को दुसरो की सेवा में लीन कर देना।”

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गाँधी के इसी विचार को सजीव कर रहे हैं ७९ वर्षीय ओमकारनाथ शर्मा , जिन्हें अधिकतर लोग मेडिसिन बाबा के नाम से जानते हैं। इनका एक ही सपना है – गरीब और ज़रुरतमंदो के लिए मेडिसिन बैंक खोलना। अपने इस सपने को सच करने के लिए ओमकारनाथ हर रोज़ दिल्ली की सडको पर निकल पड़ते हैं और मध्यम एवं उच्च वर्गिय घरो का दरवाज़ा खटखटाकर उनसे डॉक्टर द्वारा दी हुई दवाइयों में से बची हुई दवाइया देने का आग्रह करते हैं। इन दवाइयों को फिर उन ज़रुरतमंदो में बाँट देते हैं जिनके पास इन्हें खरीदने के पैसे नहीं होते। कुछ दवाईयां ये दिल्ली के अलग अलग अस्पतालो में भी बाँटते हैं। इनका कार्य और लक्ष्य बहुतो के लिए एक आशा की किरण जैसा है।

३. गंगाधर तिलक कत्नाम

“खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।”

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‘गंगाधर तिलक कत्नाम’ सही मायने में इस विचार पर अमल कर रहे हैं। जब इन्होने देखा की सड़क के गड्ढो से लोगो को कितनी परेशानी उठानी पड़ रही है, तब इन्होने निश्चय किया कि व्यवस्था को कोसने में समय व्यर्थ न कर वह खुद ही इसके लिए कुछ करेंगे। अपनी कार में रोज़ टार मिली हुई गिट्टियां ले कर ये शहर के अलग अलग हिस्सों में निकल जाते है और जहा भी सड़क पर गड्ढे दिखते हैं, ये खुद ही उसकी मरम्मत कर देते हैं। एक बार इनकी कार के चक्के ऐसे ही एक गढ्ढे में फंस गए थे जिस से कुछ बच्चो के ऊपर कीचड़ पड़ गया। तभी से इन्होने अपने पैसो से इन गड्ढो की मरम्मत करने की सोची। अब तक ऐसे ११०० गड्ढो की मरम्मत का श्रेय इनको जाता है।

४. कलावती देवी

“स्वच्छता स्वतंत्रता से अधिक आवश्यक है।”

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कानपुर की रहने वाली ५५ वर्षीया कलावती देवी का लक्ष्य आसपास की झुग्गी में शौचालय का निर्माण करवाना है। ४० वर्ष पहले कलावती कानपूर एक बालिका वधु बन कर आई थी। उस समय ये मात्र १४ वर्ष की थी। २० साल पहले, जब ये ‘रजा का पुरवा’ नामक झुग्गी में रहती थी, तब इन्हें एहसास हुआ कि यहाँ रहना किसी नर्क से कम नहीं है। छोटी सी जगह में ७०० परिवार एक भी शौचालय के बिना रह रहे थे। इस से निबटने के लिए वह एक स्थानीय संस्था ‘श्रमिक भारती’ से जुड़ गयी। वह घर घर जा कर लोगो से मिलने लगी और लोगो को समझाया कि झुग्गी में कम से कम १०-२०  शौचालय बनवाने में सहयोग करें। कलावती की मेहनत और निष्ठां से उस झुग्गी में ५० शौचालयो का निर्माण हुआ। ‘राखी मंडी शांती’ में भी इन्होने काम किया है।

५. बाबर अली

“शिक्षा में ऐसा बदलाव आना चाहिए जो किसी शाही शोषक का नहीं बल्कि सबसे गरीब ग्रामीण की ज़रूरतों का उत्तर बन पाए।”

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बाबर अली सिर्फ ९ साल का था जब उसने गरीब बच्चो को वो सब सिखाने की ठानी जो  वह अपने विद्यालय में सीखा करता था। मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल का रहने वाला पांचवीं कक्षा का छात्र बाबर विद्यालय से लौट कर अपने घर के आंगन में उन गरीब बच्चो को पढाने लगा जिनके पास विद्यालय जाने के पैसे नहीं हुआ करते थे। बच्चे भी उसके घर वापस लौटने का इंतज़ार करते थे। धीरे धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। आज २१ वर्षीय बाबर अपने इस विद्यालय में ३०० छात्रों को पढ़ा रहा है। बाबर के पास ६ टीचर और १० वालंटियर है जो बाबर के इस नेक कार्य में उसकी मदद करते हैं ।

६. वी. शांता

“स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी पूंजी है, न कि सोने- चांदी के टुकड़े।”

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८७ वर्षीय ‘वी. शांता’ देश का सबसे बड़ा कैंसर अस्पताल चलाती हैं। अपनी गुणवत्ता और विश्वस्तरीय सुविधाओं के लिए जाना जाने वाला चेन्नई स्थित अद्यार कैंसर इन्स्टीच्युट में, किसी भी सुबह, वी शांता को मरीजों एवं डोक्टरों से बातें करते हुए देखा जा सकता है । यह अस्पताल अपने २० प्रतिशत रोगियों का इलाज निःशुल्क करता है। डॉ सी वी रमण की दूर की भतीजी, डॉ शांता को २००५ में रामों मेगसेयसेय तथा २००६ में पद्मभूषण से नवाज़ा जा चूका है। डॉ शांता, डॉ मुथुलक्ष्मी रेड्डी द्वारा आरंभ किये गये आद्यर कैंसर इंस्टीच्युट की अध्यक्ष हैं। इस अस्पताल को १२ बेड के एक छोटे चिकित्सालय से एक विश्वस्तरीय संस्था बनाने का श्रेय डॉ वी शांता को ही जाता है।

७. नीलम

“किसी भी स्थिति में स्त्री को स्वयं को पुरुष के अधीन या उस से छोटा नहीं समझना चाहिए।”

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नीलम ने यह सिद्ध किया है कि यदि औरत ठान ले तो कुछ भी कर सकती है । नीलम हरियाणा के छप्पर गाँव की सरपंच है। यह ज़िम्मेदारी उसने गाँव में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए उठाई। नीलम के नेतृत्व में, बच्ची के जन्म पर मिठाई बांटने का रिवाज चल पड़ा है। औरतों ने कई पुरानी परम्पराओं को तोड़ डाला है तथा अब इस गाँव की महिलायें परदे में नहीं रहती। अपने सरपंच से प्रेरित हो यहाँ की महिलाएं शिक्षा में भी रूचि लेने लगी है जिस से इनमे एक अलग आत्मविश्वास का जन्म हुआ है ।

८. मनसुख भाई प्रजापति

“स्वदेसी हमारे भीतर का वह स्वभाव है जो हमें अपने आस पास की उपलब्ध वस्तुओं का उपयोग करने को प्रेरित करता है तथा सुदूर का बहिष्कार करने को कहता है। ”

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मनसुख भाई प्रजापति, ‘मिट्टी कूल’ नामक एक ऐसे फ्रिज के आविष्कारक है जिसका निर्माण मिट्टी से किया जाता है और इसे चलने के लिए बिजली की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। यह फ्रिज खानों का स्वाद भी बनाये रखने में सक्षम है। पेशे से कुम्हार रहे मनसुख ने इस फ्रिज का निर्माण ग्रामीण क्षेत्रो को ध्यान में रख के किया। इस फ्रिज के काम करने का तरीका वही है जो एक मिट्टी के घड़े का होता है।

९. सुन्दरलाल बहुगुना

“अहिंसा मनुष्य के पास उपलब्ध सबसे बड़ी ताकत है। यह उन शक्तिशाली हथियारों से भी अधिक शक्तिशाली है जिनका आविष्कार मनुष्य की प्रतिभा ने, विनाश के लिए किया है। ”

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सुन्दरलाल बहुगुना को ‘चिपको’ आन्दोलन के नेताओं में से एक होने के कारण जाना जाता है। ये हिमालय के जंगलों के संरक्षण के लिए कई वर्षो से कार्य कर रहे हैं। चिपको आन्दोलन ने लोगो को वन के महत्व को बताने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा पूरा आन्दोलन अहिंसा की नींव पर चलाया गया और सफल भी हुआ। बहुगुणा मानते है कि समाज में बदलाव लाने के लिए हिंसा की ज़रूरत नहीं है। ये अभी ८८ वर्ष के हैं और अभी भी हिमालय के पेड़ो को काटने के विरोध में लड़ रहे हैं।

१०. अक्काई पद्मशाली

“मैं किसी भी नाइंसाफी के समक्ष नहीं झुकूँगा।”

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समाज ने न जाने कितनी तरह से ट्रांसजेंडर, अक्काई पद्मशाली को दबाना चाहा। किन्तु इनके हौसलों के आगे सब ने हार माँ ली। एक पुरुष के रूप में जन्मी अक्काई का बचपन दुसरो से भिन्न था, जिसे उनके माता पिता भी समझने में असमर्थ थे। इस अवस्था को कोई रोग समझ कर वे अक्काई को डॉक्टर के पास ले जाया करते थे। एक ट्रांसजेंडर औरत के रूप में ४ साल अक्काई को वैश्या बन कर गुज़ारना पड़ा और इसी समय उसने अपने आस पास रह रहे कई लोगो को शारीरिक शोषण का शिकार होते देखा। इस स्थिति से लड़ने के लिए वह ‘संगम’ नामक एक स्वयं सेवी संस्था का हिस्सा बनी जो सेक्शूअल माइनॉरिटी के लिए काम करता है। आज वो ‘ओंडेड’ नामक संस्था की संचालिका है जो उनके जैसे अन्य ट्रांसजेंडर के अधिकारों के लिए लड़ता है।
इन लोगो को सलाम जिन्होंने सही मायने में गाँधी के जीवन के सन्देश को न सिर्फ समझा बल्कि अपनाया भी ।


 

मूल लेख – तान्या सिंह 

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