बळीराजा – १०० किसानो का एक व्हाट्स अप समूह जो किसानी में एक नयी क्रांति लेकर आया है !

भूमि अधिग्रहण बिल के चलते हमारा ध्यान किसानो की तरफ मुड़ा तो है पर बहुमंज़िला इमारतों के वातानुकूलित कमरो में बैठकर हम इनके लिए कुछ ख़ास कर न सके। पर 'बळीराजा ' ने इन किसानो के लिए कुछ कर दिखाने का ज़िम्मा उठाया।

आम्ही वासर-वासर, मुकी उपासी वासर,

गाय पान्हावतो आम्ही, चोर काढतात धार।

टप टप घाम उनहरतो , उनहरतो भुईवर ,

मोती पिकवतो आम्ही,

तरी उपाशी लेकर।

(हम बछड़े है, गूंगे भूखे बछड़े है ,गाय का दूध तो हमसे है , पर चोर मलाई लेकर चल पड़े है। टप टप गिरते हमारे पसीने से सीँचकर, मोती हम उगाते है…फिर भी हर रोज़ हमारे बच्चे भूखे ही सो जाते है। )

– किसान कवि स्वर्गीय श्री कृष्णा कळंब

हमारे देश में जहाँ ६० से ७० प्रतिशत जनता कही न कही से खेती पर निर्भर है, वही खेती करनेवाला किसान हर दिन बेमौत मरने पर मजबूर है। किसान कवि श्री कृष्ण कळंब भी इन्ही में से एक थे।

इस वर्ष मार्च के महीने में बारिश हुई। रिमझिम फुहारों का मज़ा लेते हुए मुंबई के एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले प्रशांत ने अपनी इक्कीसवी मंज़िल पर स्तिथ ऑफिस से ट्वीट किया –

Wow! Surprise rain in Mumbai… I’ am loving it” .


 घर पंहुचा तो गरमागरम प्याज़ के पकौड़े तैयार थे।  उन्हें खाकर अपना पसंदीदा सूती का पायजामा पहनकर वो इस बेमौसम बरसात का फिर आनंद उठाने लगा। 

और इसी वक़्त उधर महाराष्ट्र के यवतमाल जिल्हे के एक छोटे से गाँव में दो किसानो ने फांसी से लटककर अपनी जान दे दी।  उनमे से एक किसान प्याज़ उगाता था,जिससे पकौड़े बनते है, और दूसरा कपास, जिससे सूती के पायजामे बनते है। दोनों की ही फसले इस बेमौसम बारिश से तबाह हो चुकी थी। ज़िंदा  रहते तो अपने बच्चो को भी भूखा मरता देखते या सारी ज़िन्दगी साहूकार का क़र्ज़ चुकाने में गुज़ार देते।

भूमि अधिग्रहण बिल के चलते हमारा ध्यान इन किसानो की तरफ मुड़ा तो है पर बहुमंज़िला इमारतों के वातानुकूलित कमरो में बैठकर हम इनके लिए कुछ ख़ास कर न सके। पर  ‘बळीराजा ‘ ने इन किसानो के लिए कुछ कर दिखाने का ज़िम्मा उठाया।

‘बळीराजा ‘ महाराष्ट्र के विभिन्न जिल्हो के रहनेवाले १०० किसानो का एक व्हाट्स अप ग्रुप है।  श्री अनिल बंदावने ‘किसान कॉल सेंटर’ के अनुभव से कुछ ज़्यादा खुश नहीं थे।  जानकारी तो मिलती थी पर वह सिर्फ किताबी जानकारी होती। प्रशिक्षित एजेंट्स को असल खेती के बारे में कुछ पता नहीं होता।  ऐसे में खेती से सम्बंधित सही जानकारी की तलाश में अनिल जी को फेसबुक पर एक किसानो का ग्रुप मिला।  वही से किसानो को इकठ्ठा कर उन्होंने यह व्हाट्स अप ग्रुप बनाया।

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Photo for representation purpose only. Source: usf.vc

” आजकल गाँवों में भी ज़्यादातर किसानो के पास स्मार्ट फ़ोन है।  वे खेती के लिए भी आधुनिक तकनीक का उपयोग करते है, पर फिर भी कई सारी दिक्कते है। हमारे व्हाट्स अप ग्रुप ‘बळीराजा ‘ में कुछ विशेषज्ञ भी है जो सही समय पर जानकारी देकर कई समास्यो का समाधान करते है। “

– अनिल बंदावने। 

‘बळीराजा ‘ में हर कोई अपनी अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाता है। विलास थातोड , नियमित रूप से मौसम की  जानकारी देते रहते है।  असमय वर्षा जैसे विपरीत परिस्थितियों की जानकारी देकर उन्होंने कई बार नुक्सान होने से बचाया है।

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असमय बारिश की जानकारी देते विलास थातोड़

श्री  कृष्णत पाटिल, जो अपने गाँव में अपना एक  कृषि केंद्र चलाते है , तथा श्री अनिल बंदावने , जो एक इंजीनियर होते हुए भी अब एक किसान है , किसानो को खाद , कीटनाशक तथा खेती से जुड़े आधुनिक उपकरणों की जानकारी देते रहते है।

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खेती के नए तरीको की जानकारी देते हुए baliraja के साथी

श्री सुजय कूमठेकर एक शेफ है एवम कई होटल मैनेजमेंट विश्वविद्यालयों में बतौर गेस्ट लेक्चरर पढ़ाते भी है।  परन्तु अपने पारिवारिक धरोहर- खेती से वे अब भी जुड़े हुए है।  कुछ दिनों पहले ही उन्होंने ग्रुप के बाकि किसानो को कॉन्टिनेंटल पकवानो में इस्तेमाल होने वाली सब्ज़िया जैसे की ब्रॉक्ली और जुकीनी को उगाने के तरीके बताये।

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विदेशी सब्जियां उगाने की जानकारी देते हुए सुजय कुमठेकर

इसी ग्रुप के एक और सदस्य श्री युनुस खान अकोला जिल्हे के ‘अग्रि क्लीनिक एंड अग्रि बिज़नेस सेंटर’ में कार्यरत है।  यह संस्था खेती से  सम्बंधित  उद्योगो का है।  युनुस जी खेती से जुड़े सभी नए नए संशोधनों का ब्यौरा ग्रुप में देते है।

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नयी तकनीक तथा नए संशोधनों की जानकारी देते युनुस खान

होप (हेल्प आवर पीपल फॉर एजुकेशन बहुउद्देशीय संस्था, राजुरा ) के अध्यक्ष श्री अमोल साईंवार सदैव इन किसानो को  आर्थिक तथा मानसिक सहायता देने में  तत्पर रहते है । उदाहरण के तौर पर जब  किसानो ने अनाज तथा सब्जियों को रखने के लिए गोदाम न होने से होनेवाली मुश्किलो के बारे में ग्रुप में चर्चा की तो सरकारी मदत की अपेक्षा किये बगैर अमोल ने अपनी संस्था तथा किसानो के श्रमदान की मदत से ही गोदाम बना देने का निर्णय ले लिया।  अब यह गोदाम कम से कम तीन गाँवों  के किसानो के अनाज तथा सब्जियों की हिफाज़त करेगा।

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गोदाम बनाने की योजना बनाते हुए अमोल सैनवार तथा अन्य साथी

 

कई बार इन गरीब किसानो को परिस्थिति से जूझने के लिए केवल  मनोबल की आव्यशकता होती है। हमारे ग्रुप के एक सदस्य को इसी तरह एकजुट होकर और मनोबल देकर हमने आत्मत्या करने से बचाया है।  काश हम सभी किसान एकजुट होकर इसी तरह कई किसानो की जान बचा पाते।

– सुजय कूमठेकर

पिछले कुछ दिनों से किसानो की समस्या को लेकर हर कोई बोल रहा है।  संसद में हंगामा होने से लेकर न्यूज़ चैनेलो पे ब्रेकिंग न्यूज़ तक हर कोई उनकी समस्या को भुनाने में लगा है।  परन्तु १०० किसानो के इस व्हाट्स उप संगठन ने काफी पहले इन मुद्दो पे आपसी सहमति से प्रधानमंत्री तथा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र लिखे थे।

पत्र में उन्होंने निम्नलिखित समस्याओ का तथा उनके समाधान का उल्लेख किया है।

१. न्यूनतम तथा अधिकतम कीमत

हम  बाज़ार से कोई भी चीज़ खरीदते है तो हमें उसके M.R.P यानि अधिकतम कीमत का पता होता है।  दूकानदार को भी इस कीमत की जानकारी होती है।  यदि किसी चीज़ को बंनाने में एक रूपये की लागत लगी है तो कम से कम दो रूपये मिलने का भरोसा को होता है।  परन्तु आपको ये जानकर हैरानी होगी की किसान जब अपनी चीज़ बेचने जाता  है तब उसे अपने अनाज या सब्जी की कीमत का कुछ पता नहीं होता।  उसे ये भी भरोसा नहीं होता की जितनी लागत थी कम से कम उतनी ही कीमत भी मिलेगी या नहीं। दिन रात की गई मेहनत से उगाये अपने ही फसल की कीमत वह तय नहीं कर सकता।  कीमत बिचौलियों द्वारा तय की जाती है, जो इस बात पर निर्भर करती है की उस दिन बिकने के लिए बाजार में कितना माल आया। जितना ज़्यादा माल , उतनी ही कम कीमत। इसके अलावा माल को बाजार तक लाने का खर्च , माल उठाने के लिए हमाली का खर्च तथा बेचने के लिए भी इन बिचौलियों को किसान ही पैसे देता है।

यह सभी परेशानियाँ दूर हो सकती है यदि किसान को बाज़ार से सीधे संपर्क करने दिया जाए।  यदि बिचौलियों को बीच से हटा दिया जाए।  और यदि बाकि चीज़ो की ही तरह किसान के माल की भी कीमत निर्धारित की जाए।

२.  फसल का बीमा

फ़र्ज़ कीजिये की आपने अपना मकान बनाते वक़्त बीमा करवाया।  मकान के बनते बनते एक बड़ी लागत लगायी।  पर जब मकान बन कर रहने के लिए तैयार होने ही वाला था की उसमे आग लग गयी।  अब बीमा कंपनी यदि आपसे ये कहे की आपको बीमे की रकम तभी मिलेगी जब आपके मोहल्ले में ७० फीसदी और मकान जले हो।  या ये की सिर्फ जमीन के हिसाब से मुआवज़ा मिलेगा न की उसपर खड़ी इमारत का या उसमें रखे सामान का तो आप क्या करेंगे ? किसान के लिए जो भी बीमा नीतियां अब तक बनायीं गयी है उनमे इसी तरह की खामियां है।

प्राकृतिक विपदा से हुई क्षति का किसी भी बीमा नीति में आलेख नहीं है।  सरकार ने कई बार एक उचित बीमा योजना बनाने की कोशिश की जैसे की कॉंप्रेहेन्सिव क्रॉप इन्षुरेन्स स्कीम १९९७ , एक्सपेरिमेंटल क्रॉप इन्षुरेन्स १९९७- १९९८  , फार्म इनकम इन्षुरेन्स स्कीम २००४।  पर ये सभी नाकाम रही। फिर  १९९९ -२००० में ‘राष्ट्रिय कृषि बीमा योजना’ शुरू की गयी।  परन्तु इसके बारे में भी किसानो को अवगत कराना ज़रूरी है। सरकार को ये समझना होगा की नौकरीपेशा लोगो को जिस तरह बीमा कंपनियां खुद कॉल कर कर के जानकारी देती है , ऐसा किसान के साथ बिलकुल नहीं होता।  इसलिए यदि किसान के लिए नीतियां बने तो उसकी जानकारी  किसान तक पहुचाने का जिम्मा भी उन्हें उठाना होगा।

राष्ट्रिय कृषि बीमा योजना निसंदेह एक कारगर पहल है परन्तु ‘बळीराजा ‘ के हिसाब से इस योजना में भी निम्नलिखित कमियां है।

  • आर्थिक परिस्थिति के आधार पर बीमा की रकम ( आपको एक निर्धारित पूंजी दिखानी पड़ेगी जो की अक्सर किसानो के पास नहीं होती। )
  • क़र्ज़ लेने हेतु अनिवार्य ( यदि आप सरकार से क़र्ज़ लेना चाहते है तो ना चाहते हुए भी यह  योजना  अनिवार्य है। )
  • बीमा की किश्ते उससे मिलने वाले बीमा राशि से कई ज़्यादा है।  (बीमा राशि ज़्यादातर नुक्सान की भरपाई करने जितनी भी नहीं होती। )
  • बीमा के लिए किसान को नहीं बल्कि ज़मीन को यूनिट माना जाता है।  (बीमा की दावेदारी तभी कर सकते है जब ७० प्रतिशत ज़मीन का नुक्सान हुआ हो )

बळीराजा के मुताबिक इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब किसानो के लिए सरकार द्वारा एक स्वचालित बैंक हो जो किसानो द्वारा ही चलायी जाए। इसके अलावा बीमा राशि फसल की लागत तथा कीमत पर निर्धारित हो।

३. जीवन यापन के लिए ज़रूरी संसाधनो का गावो में विकास

बिजली, पानी, सड़क, शौचालय तथा स्वस्थ केंद्र जैसे न्यूनतम संसाधन जो शहरों की पहचान है आज भी कई ग्रामीण क्षेत्रो से कोसो दूर है।  किसान सिर्फ ६ महीने खेती करता है और बाकि के ६ महीने उसे काम की तलाश में अपने परिवार से दूर शहरों की तरफ भागना पड़ता है। पर शहर भी उसे काम देने की कोई गरंटी नहीं देते।  दिहाड़ी मज़दूरी करके और शहर में रहने का खर्च निकालके अपने परिवार का पेट भरने के लिए इन किसानो के पास कुछ नहीं बचता।

इन दोनों समस्याओं का  हल एक सरल से उपाय से हो सकता है।  बळीराजा का मानना है कि यदि सरकार गाँवों में लगने वाली रोज़मर्रा की ज़रूरत का सामान गाँव में ही बनाने की  सुविधा प्रदान करे तो इन किसानो को बाकि के ६ महीने वही रोज़गार मिल सकता है।  इसके अलावा सड़क , शौचालय तथा स्वास्थ केंद्र के निर्माण कार्यो के लिए भी किसानो को नियुक्त किया जा सकता है। इससे गाँवों का विकास होने के साथ साथ किसानो को भी रोज़गार की गारंटी मिलेगी।

४. उपजाऊ ज़मीन का उपयोग फसल उगाने के लिए हो।

बळीराजा  मानता है की विकास के लिए भूमि अधिग्रहण की ज़रूरत पड़  सकती है। परन्तु सरकार को भी ये समझना होगा की  हमारे देश में दिन ब दिन खाने वाले तो बढ़ रहे है पर अनाज उगाने वाली ज़मीन उतनी ही है जितनी पहले थी।  यदि उतनी ज़मीन को भी उद्योगीकरण के लिए इस्तेमाल कर लिया जायेगा तो समस्याएं और बढ़ेंगी।  उपजाऊ ज़मीन को सिर्फ और सिर्फ खेती के लिए ही खरीदा या बेचा जाना चाहिए।

५. कृषि तथा कृषि उद्योग के लिए एक अलग बजट

हमारे देश के कुल आबादी में से केवल १.९  प्रतिशत आबादी ही ट्रेन का इस्तेमाल करती है।  और फिर भी इस विभाग का एक अलग बजट है। और होना भी चाहिए क्युकी तभी तो  हमारी रेल सेवा इतनी सुखरूप है।  परन्तु वही जहाँ ६० से ७० फीसदी जनता किसी न किसी तरह से खेती पर आधारित है फिर भी इस क्षेत्र के लिए कोई बजट नहीं है।  आलू प्याज़ के दाम बढ़ते ही हम सरकार को कोसने लगते है ये कहकर की ये चीज़े जीवनयापन के लिए ज़रूरी है और इसके दाम नहीं बढ़ने चाहिए।  कीमतों को कम ही रखने के लिए सरकार फिर इन सब्ज़ियों तथा फलो का निर्यात करती है।  जिससे हमारे ही देश के किसानो का माल कम दामो पर बिकता है।  क्या आपने कभी सोचा है की अपने आलू प्याज़ को कम से कम दाम में बेचनेवाला ये किसान जीवनयापन की बाकि चीज़े जैसे घर, कपडा और दवाईयां कैसे खरीदता होगा? कृषि बजट होने से इन सब बातो का समाधान निकल सकता है।

६. देश की नयी पीढ़ी को किसान बनने के लिए  प्रेरित करना।

हर कोई अपने बच्चो को डॉक्टर, इंजीनियर या वकील बनाना चाहता है।  क्या आपने कभी किसीको ये कहते हुए सुना है की मैं अपने बच्चे को किसान बनाना चाहता /चाहती हूँ ? यहाँ तक की एक किसान भी कभी ये नहीं कहता की वह अपने बेटा /बेटी को किसान बनाएगा।  कृषि प्रधान देश होते हुए भी क्यों हम इस काम को हीन भावना से देखते है ? कारण है हमारी शिक्षा व्यवस्था।  हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें इंजीनियर बनाने के लिए गणित सिखाती है।  डॉक्टर बनाने के लिए जीवविज्ञान (बायोलॉजी ) सिखाती है।  अर्थशास्त्री बनाने के लिए अर्थशास्त्र पढ़ाती है तथा समाजशास्त्री बनाने के लिए समाजशास्त्र।  परन्तु हमारे कृषि प्रधान देश की शिक्षा व्यवस्था में किसान बनने के लिए कोई विषय नहीं पढ़ाया जाता।  हमें हमारी नयी पीढ़ी को भी किसान बनने के लिए प्रेरित करना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब सिर्फ खाने वाले रह जायेंगे और उगाने वाला कोई नहीं होगा।

७. किसानो की आत्महत्या रोके

यदि ऊपर दिए गए सारे सुझावों पर अमल कर लिया जाए तो शायद किसानो की आत्महत्या के बारे में बात ही न करनी पड़े।  पर आज , इस वक़्त ये मुद्दा सबसे ज़्यादा गंभीर तथा महत्वपूर्ण है।  जंतर मंतर पर हज़ारो की भीड़ के सामने अपनी जान देते हुए राजस्थान के किसान गजेन्द्र सिंह ने कई सवाल उठाये है। क्या किसान युही मरता रहेगा ? क्या हम उसे युही मरने देते रहेंगे ? बळीराजा ये सशक्त रूप से मानता है की समय रहते मानसिक आधार देने से यह विपदा टाली जा सकती है।  आत्महत्या का विचार एक किसान के मन में तभी आता है जब उसे प्राकृतिक विपदा के कारण गंभीर नुक्सान का सामना करना पड़ता है।  यदि हर गाँव में ऐसे समय पर एक मानसिक चिकत्सक हो जो हर किसान को मनोबल प्रदान करे तो काफी हद तक हम ये आत्महत्याएं रोक सकते है।

डॉक्टर्स मानते है की किसी भी मानसिक रोग का कारण चिंता है।  क्या आप ऐसे व्यक्ति  की चिंता का अंदाजा लगा सकते है जिसके पास रोटी, कपडा और मकान जैसी मूल वस्तुओ का भी उचित साधन न हो? यह व्यक्ति हमारे देश का किसान है और हमें इस बात को मानना होगा की उसके इस चिंता के मनोरोग में तब्दील होने से पहले उसे चिकित्सा प्रदान करनी चाहिए।

बळीराजा के इस सन्देश को श्री प्रभाकर पाचपुते ने अपनी कला ‘The Beast and the Sovereign’ में बखूबी दर्शाया है। यह Württembergischer Kunstverein Stuttgart and Museu d’Art Contemporani de Barcelona (MACBA) की प्रदर्शनी का भी हिस्सा रही है। इसके मुताबिक ये नौका जो किसानो की मदत के लिए आई है, ये कभी किसानो तक पहोचती ही नहीं

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किसानो तक कभी सही समय पर मदत नहीं पहोंचती

“हम भाग्यशाली है की हम बळीराजा का हिस्सा है।  पर हमारी तरह हर किसान के पास बळीराजा नहीं होता।  कई किसानो के पास तो फोन भी नहीं होता।  हमारी सरकार  से दरख्वास्त है की वो ऐसे किसानो को समय रहते सहायता प्रदान करे।  हर गाँव में एक ऐसा व्यक्ति नियुक्त करे जो उस गाँव की सही तस्वीर सरकार के सामने रख सके।  हर  गाँव में एक अन्ना हो जो उस गाँव को रालेगाँव सिद्धि जैसा बना सके , एक पोपटराव हो जो उसे हिवरे बाजार जैसा बना सके।  हमें मुआवज़े नहीं,  एक स्थायी समाधान चाहिए।  रोज़गार का और कमाई का भरोसा चाहिए।  हमारी सरकार से गुज़ारिश है की वो हमारे किसान भाईयो को अब और न मरने दे।”

– बळीराजा 

इस लेख के छपने के एक महिने के भीतर ही अब ‘बळीराजा’ की दस शाखाए बन चुकी है। मतलब अब बळीराजा १०० का नहीं १००० किसानो का संगठन है । और अभी तक रुका नहीं है । इस ग्रुप में अब कई ऐसे लोग भी जुड़े है जो किसानो को बिना मध्यस्ता के अपना माल बेचने में सहायता करते है। इनके बारे में टाइम्स ऑफ़ इंडिया और बी.बी.सी- हिंदी जैसी पत्रिकायो में भी लिखा जा चूका है। तथा NDTV-India के प्राइम टाइम पर भी बळीराजा को डिजिटल इंडिया के एक उदाहरण के तौर पर दिखाया गया है ।

यदि आप इन किसानो की किसी भी तरह मदत करना चाहते है या बळीराजा परिवार का हिस्सा बनना चाहते है तो हमें इस पते पर ईमेल करे bacher.manabi@gmail.com और amol.sainwar@gmail.com

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