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भुला दिए गए नायक, जिन्होंने विभाजन के दौरान बचाई कई ज़िंदगियाँ!

आजादी दिलाने वाले नेताओं के नाम सबकी जुबां पर अमर हो गए। लेकिन इस बँटवारे में अपनी जान की बाजी लगाकर ज़िंदगियाँ बचाने वालों को भुला दिया गया। आज हम लेकर आए हैं ऐसी ही कहानियां जिन्हें आप आमतौर पर नहीं सुनते, न इनकी गाथाएं आजादी के इतिहास से जुडी हैं और न ही इनकी बरसी मनाकर याद किया जाता है।

15 अगस्त 1947 को हमें आज़ादी मिली। लेकिन आजादी के साथ अंग्रेजों की चाल और आपसी राजनीति ने भारत के दो हिस्से कर दिए। जब हम आजादी का जश्न मना रहे थे उस दौरान करीब दस लाख लोग अपनी ज़िंदगियाँ कुर्बान कर रहे थे।

ज़ादी इतिहास में दर्ज हो गई, लेकिन वो चीखें राजनीतिक सफलताओं के नीचे दबकर रह गयीं। आजादी दिलाने वाले नेताओं के नाम सबकी जुबां पर अमर हो गए। लेकिन इस बँटवारे में अपनी जान की बाजी लगाकर ज़िंदगियाँ बचाने वालों को भुला दिया गया।

आज हम लेकर आए हैं ऐसी ही कहानियां जिन्हें आप आमतौर पर नहीं सुनते, न इनकी गाथाएं आजादी के इतिहास से जुडी हैं और न ही इनकी बरसी मनाकर याद किया जाता है।

बँटवारे में लगभग 1 करोड़ 70 लाख लोग एक ही देश के अलग अलग हिस्से में बेघर हुए, उनमें से 10 लाख लोग साम्प्रदायिक दंगो की बली चढ़ गए।

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लेकिन ये भी सच है कि राजनैतिक रूप से बंट चुके दोनों देशों में ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने साम्प्रदायिकता से दूर भाईचारे की खातिर लोगों की जान बचाई, उन्हें रहने का ठिकाना दिया, चाहे उसके लिए उन्हें अपनी जान की क़ुरबानी ही क्यों न देनी पड़ी हो।

ये नाम इश्तियाख अहमद की किताब ‘द पंजाब: ब्लडीड, पार्टीशंड एंड क्लिंज्ड’ से लिए गए हैं। इस किताब में उन्होंने अपनी आँखोंदेखी कहानियां दर्ज की हैं।

1. हरिजन बाबा ने बचाई बंधक औरतें

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बँटवारे में जब लोग अपने-अपने धर्म के देशों में भाग रहे थे, तो उस देश के कट्टर पंथियों ने दूसरे धर्म के लोगों को विस्थापन का मौका भी नहीं दिया। जहाँ भी विस्थापन की टोलियां दिखतीं कट्टर पंथियों के समूह उन पर टूट पड़ते और बैलगाड़ियों पर लाशें ही दूसरे देश जातीं।

इन हमलों में महिलाओं को पकड़ कर बंधक बना लिया जाता। इस तरह दोनों ओर से अनुमानतः एक लाख महिलाओं को बंधक बना लिया गया।

6 दिसंबर 1947 को भारत-पाकिस्तान के बीच इन महिलाओं को खोजने के लिए संयुक्त अभियान की संधि पर हस्ताक्षर हुए।

इस अभियान के तहत करीब 200 मुस्लिम महिलाएं दिल्ली में पाईं गयीं जो हिंसा से बचाई गयीं थीं। इनमें से कुछ को सामाजिक संस्थाओं ने तो कुछ को पुलिस ने बचाया था, लेकिन सबसे ज्यादा महिलाओं को बचाने वाले शख्स आज तक बेनाम हैं। अकेले दम पर उन्होंने सैकड़ों लड़कियों और महिलाओं को बंधकों से बचाया और गुप्त रास्ते से उनको अपने-अपने घर भेज दिया।

एक बचाई लड़की ने उनकी पहचान बूढ़े हरिजन बाबा के रूप में की और आज हम सब उन्हें उसी नाम से जानते हैं।  कई लोगों ने उन्हें खोजने की कोशिश की, लेकिन वे आज भी हरिजन बाबा के नाम से ही जाने जाते हैं।

2. अज्ञात ख़ाकसार जो दंगे रोकते रोकते अमर हो गए

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भारत-पाकिस्तान के बंटवारे से एक महीने पहले रावलपिंडी के गॉर्डन कॉलेज एरिया में पवित्र कुरान के कुछ पन्ने फटे हुए मिले, जिन्हें ‘ख़ाकसार’ समूह के एक सदस्य ने इकट्ठे कर सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया ताकि शहर दंगों की आग में न जल उठे।

वो एक लोकल कॉलोनी में भीतर तक लोगों को शांत कराने के लिए घुस गए लेकिन भीड़ ने उनपर हमला कर मौत के घाट उतार दिया।

इनायतुल्लाह खान मशरीकी ने अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए इस्लामिक युवकों का एक समूह बनाया, जिसे ‘ख़ाकसार’ नाम दिया गया। इसकी दूसरी इकाई में गैर मुस्लिम भी शामिल हो सकते थे।

बंटवारे की आग में झुलसते रावलपिंडी के ख़ाकसार कमांडर अशरफ खान ने अपने साथियों से दंगे रोकने और ज्यादा से ज्यादा लोगों की जानें बचाने का आग्रह किया। उनके साथ ख़ाकसार के सदस्यों ने बिना किसी भेदभाव के सैकड़ों जाने बचाईं। जिनमें पाकिस्तान में रह रहे हिन्दू और सिख भी शामिल थे।

3. दत्त भाई और डॉ अब्दुर रऊफ : अपनी जान दांव पर लगाकर बचाई दूसरों की जान

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बंटवारे के दौरान हिंसक भीड़ ने अस्पताल तक नहीं छोड़े, अस्पतालों में घुस घुस कर गैर-धर्म के लोगों की जान लीं और डॉक्टरों को परेशान किया। इसी दौरान जब अमृतसर के एक अस्पताल में हिन्दू-सिख भीड़ ने आक्रमण किया तो डॉ पुरुषोत्तम दत्त और उनके भाई डॉ नारायण दत्त ने उग्र भीड़ का हथियारों से मुकाबला किया। उन्होंने बंदूकें उठा लीं और भीड़ को आगे बढ़ते ही फायर करने की चेतावनी देते हुए उन्हें अस्पताल के भीतर आने से रोके रखा।

कुछ चश्मदीद इस घटना के बारे में बताते है कि दोनों डॉक्टर भाई कुछ इस तरह भीड़ को धमका रहे थे, “तुम्हारी ये हरक़त बहुत घटिया और कायराना है.. चुपचाप यहां से लौट जाओ.. जब तक हम ज़िंदा हैं और जब तक  हमारी बंदूकों में गोलियां बाकी हैं, हम इस अस्पताल के मुस्लिम मरीजों को छूने भी नहीं देंगे..”

इन दो डॉक्टरों को इस रूप में देखकर भीड़ बिखर गयी और इस तरह सैकड़ों मुस्लिम मरीज अस्पताल में बचा लिए गए।

उधर इस घटना के वीपरीत, अमृतसर के कटरा करम सिंह एरिया में डॉ अब्दुर रउफ ने धार्मिक कट्टरता के खिलाफ धार्मिक रणनीति ही अपनाई। अस्पताल में छुपे लोगों की जान की प्यासी मुस्लिम भीड़ को वे इस्लाम के सच्चे अर्थ बताकर होश में लाए और उनकी इस कोशिश ने 200 गैर-मुसलमानों को जीवन दान दे दिया।

4. एक सिख जिसने सैकड़ों मुसलमानों को पनाह दी

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आजादी से पहले जून 1947 में ही अमृतसर सुलगने लगा था। कई बस्तियां जला दी गयीं, हिन्दू-सिख भीड़ ने मुस्लिमों के खिलाफ जंग छेड़ दी। और हज़ारों मुस्लिमों ने अपनी जान गंवा दी। उनमें से सैकड़ों बच गए जो आज भी बाबा घनश्याम को याद करते हैं। जिनके घर में उन्हें सुरक्षित शरण मिली। बाबा घनश्याम, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सिख सदस्य थे, जिन्होंने सैकड़ों मुस्लिमों को अपने घर में आसरा दिया। जो उस वक़्त उनके लिए भी खतरे से खाली नहीं था।

5. एक पुलिस अधिकारी जिसने मस्जिद की रक्षा की और एक लड़का जो कभी लौटकर नहीं आया

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अगस्त 1947 में पूर्वी पंजाब के फिरोजपुर में लगभग 300 मुस्लिमों को एक मस्जिद में पनाह लेनी पड़ी, क्योंकि वह मस्जिद पुलिस स्टेशन के करीब थी। उनके एक हिन्दू हितैषी लाला धुनी चंद ने उन्हें चेतावनी देते हुए हमले के बारे में पहले से आगाह कर दिया था। वे सब मस्जिद में घुस गए, पास के पुलिस स्टेशन में त्रिलोक नाथ दारोगा थे। उन्होंने तुरंत मस्जिद के चारों ओर पुलिस फ़ोर्स लगवा दी।

पुलिस अधिकारी त्रिलोक नाथ ने अपना फ़र्ज़ निभाते हुए सैकड़ों मुस्लिमों की जान बचाई।
त्रिलोक नाथ की मुस्तैदी से हमला नहीं हुआ, लेकिन सांस थमा देने वाले डर में दुबके मुसलमानों में एक बुजुर्ग अपनी दवाई घर में ही भूल आए थे। रात गहरी हुई तो उनका शुगर लेवल गिरने लगा और इन्सुलिन के इंजेक्शन की जरूरत सख्त होती गई।

रात के 3 बजे लाला धुनी चंद का बेटा अमरनाथ कर्फ्यू भरी सहमी रात में मस्जिद में आया, यह सुनिश्चित करने कि उसके दोस्त का परिवार सुरक्षित तो है। तब उसे बुजुर्ग की तक़लीफ़ के बारे में पता चला और अमरनाथ फ़ौरन ही अपने पिता की दुकान से इन्सुलिन का इंजेक्शन लेने चला गया। तब का गया अमरनाथ कभी लौटकर नहीं आया। बाद में पता चला कि वह उग्र भीड़ के गुस्से का शिकार हो गया क्योंकि वह मुसलमानों की मदद कर रहा था।

6. एक आश्रम जो महीनों मुस्लिमों की शरणस्थली बना रहा

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दिल्ली में नरेला के स्वामी स्वरूपा नंद जी का आश्रम दंगों के दौरान मुस्लिम परिवारों के लिए अस्थाई घर बना रहा। स्वामी स्वरूपा नंद जी ने न सिर्फ मुसलमानों को उग्र भीड़ से बचाया बल्कि उनमें से ज्यादातर को यमुना किनारे उनके सगे-संबंधियों तक पहुँचाया ताकि वे सुरक्षित रहें।

जब हिंसा ख़त्म हो गई तब स्वामी जी ने अथक प्रयास किया और बेघर मुस्लिम परिवारों को उनके घर दिलवाए। उन्होंने गांधी जी से मुस्लिम परिवारों को बसाने की अनुमति ले ली तथा जमीदारों के साथ बातचीत कर मुस्लिम परिवारों को जमीनें दिलवाईं।

7. एक परिवार जो अभिनेता सुनील दत्त के परिवार के लिए लड़ा

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आज के पाकिस्तान में झेलम कस्बे के निकट खुर्द में अभिनेता सुनील दत्त का परिवार रहता था। उनकी परवरिश उनके चाचा ने की, जो वहां के प्रमुख जमींदारों में से एक थे। चाचा का अपने गाँव से लगाव इतना था कि जब सेना ने हिंसा की आशंका जाहिर करते हुए हिंदुओं को गाँव छोड़ देने को कहा तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया। लेकिन जैसी कि आशंका थी, गुस्साई भीड़ उनके घर की ओर बढ़ी तो वे पास के ही गांव में अपने दोस्त याकूब के घर पहुंच गए। लेकिन भीड़ उन्हें घर पर न पाकर उनके पीछे-पीछे याकूब के घर तक पहुँच गयी। लेकिन याकूब और उनके भाई के लिए मेहमान का दर्जा अल्लाह के करीब था। उन्होंने बंदूकें निकाल लीं और दत्त साहब के परिवार को आखिरी साँस तक बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की।

8. क्रिकेटर इंजमाम-उल-हक़ के परिवार को बचाने वाला परिवार

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एक बार जब पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के तत्कालीन कप्तान इंजमाम-उल-हक़ भारत दौरे पर आए तो उन्हें एक युवक ने अपनी माँ का फोन नम्बर दिया और गुजारिश की, कि अपने परिवार को दे दें। उस युवक की माँ पुष्पा गोयल इंजमाम के परिवार वालो से बात करना चाहती थी। इंजमाम ने वो नम्बर अपने पिता को दिया और पुष्पा जी को मुल्तान से फोन आ गया।

पुष्पा जी के परिवार ने बंटवारे के वक़्त इंजमाम के परिवार को हरियाणा के हिसार में हिंसक भीड़ से बचाया था। इस बात को इंजमाम के पिता कैसे भूल सकते थे। पुष्पा जी को जब 1999 में इंजमाम की शादी में मुल्तान बुलाया गया, तब उन्होंने भावुक होते हुए कहा था,

“ये एक तरह से बड़े दिनों बाद अपने घर वापसी को तरह था, मैं मुल्तान जाना कैसे भूल सकती हूँ।”

देश को आज़ाद हुए 69 साल हो गए, आज भी हर वर्ष हमारे देश के हिस्से साम्प्रदायिकता की आग में झुलस जाते हैं। हम हर वर्ष 15 अगस्त को आजादी का जश्न मनाते हैं, लेकिन इन वाकयों को भुलाकर हम किस ओर बढ़ रहे हैं। आज़ादी के नायकों की कहानियां इतिहास के पन्नों पर दर्ज हैं, लेकिन भाईचारे पर जान न्योंछावर करने वाले नायकों को हमें याद रखना होगा ताकि सौहार्द की भावना बनी रहे।

मूल लेख – संचारी पाल 


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