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पुस्तक समीक्षा : केदारनाथ सिंह की कविता संग्रह ‘अकाल में सारस’!

‘अकाल में सारस’ ऐसी ही कविताओं का संग्रह है, जिसमे 1983-87 के मध्य रची गयी कवितायेँ संकलित हैं। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत यह संकलन कविता को भाषा और भाव दोनों ही स्तर पर ‘भारत’ की जमीन पर खड़ा करता है। ये कविताएँ पाठक के साथ संवाद करती हैं और कविता और मनुष्य के बीच के शाश्वत सम्बन्ध को व्यक्त करती हैं।

“पर मौसम
चाहे जितना ख़राब हो
उम्मीद नहीं छोड़तीं कवितायेँ
वे किसी अदृश्य खिड़की से
चुपचाप देखती रहती हैं
हर आते जाते को
और बुदबुदाती हैं
धन्यवाद! धन्यवाद!”

भारतीय काव्य संसार में केदारनाथ सिंह ‘धन्यवाद’ के कवि हैं। उनके पास स्वीकार का बड़ा ह्रदय है जहाँ यथार्थ की जमीन पर परम्परा-आधुनिकता, सुख-दुःख, गाँव-शहर, खेत और बाजार एक साथ रहना चाहते हैं। केदार जी की कवितायेँ जीवन की तमाम चुनौतियों में उम्मीद की खोज करती दिखाई पड़ती हैं। यह उम्मीद मानवता के साहस विश्वास और जिजीविषा की गवाही है। ‘अकाल में सारस’ ऐसी ही कविताओं का संग्रह है, जिसमे 1983-87 के मध्य रची गयी कवितायेँ संकलित हैं। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत यह संकलन कविता को भाषा और भाव दोनों ही स्तर पर ‘भारत’ की जमीन पर खड़ा करता है। ये कविताएँ पाठक के साथ संवाद करती हैं और कविता और मनुष्य के बीच के शाश्वत सम्बन्ध को व्यक्त करती हैं।

“जा रहा हूँ
लेकिन फिर आऊँगा
आज नहीं तो कल
कल नहीं तो परसों
परसों नहीं तो बरसों बाद
हो सकता है अगले जनम भी”

– (प्रिय पाठक;पृष्ठ -108)

 

परम्परा से बतियाती आधुनिकता

केदार जी कविता में परम्परा और आधुनिकता के मध्य विरोध की बजाय संवाद का रिश्ता देखते हैं। अतीत वर्तमान पर अपने विचार थोपता नहीं है। एक किसान बाप अपने बेटे को जीवन के सूत्र देता है लेकिन उसकी अनिवार्यता को ख़ारिज करता है, जिससे जीवन में विकल्प बने रहें जहाँ से विकास का रास्ता फूटता है। कवि जमीन से जुड़ने का ‘एक छोटा सा अनुरोध’ भी करता है पर उसकी भाषा आसमान के इंकार की नहीं है।

“जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई अड्डे की ओर”

– (मातृभाषा;पृष्ठ 11)

 

धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय

“धीरे धीरे हम” कविता में केदार जी व्यग्र होने की बजाय निरंतरता की बात करते हैं। लेकिन निरंतरता का मतलब निश्चिन्त हो जाना नहीं है, बल्कि उसके पीछे एक ज़िद होनी चाहिए। यह ज़िद चलने की है, चुनौतियों से लड़ने की है, निरंतर कदम बढ़ाकर आगे बढ़ने की है। मंज़िल हमारे आत्मविश्वास की चमक से खूबसूरत हो जाएगी।

पर अब ज़िद है
मुझे जाना तो होगा ही
और फूल चाहे जिस रंग के भी हों
मेरा खयाल है मेरे जाते जाते
हो ही जायेंगें
लाल-भभूक !

– (ज़िद;पृष्ठ 66)

मासूमियत के सागर में ईमानदारी की नाँव

एक कवि अपनी कविता में सबसे अधिक ईमानदार होता है। केदार जी की ईमानदारी नाज़ुक है, जहाँ भावुक कर देने वाली मासूमियत है। वे मजदूर के लिए महल की बात नहीं करते हैं। उनकी कविता में खटने के बाद, बबूल की छाँह में, सुस्ताता है मजदूर! वह दया का पात्र भी नहीं क्यों कि साहस और स्वाभिमान उसके सहयात्री हैं और उसका संघर्ष ही उसकी चमक है –

उसकी सुन्दर चमकती हुई धार
मुझे छूती है
और बचाती है
लेकिन दया
मुझे हर बार चीर देती है।

–  (रसोई घर में चाकू;पृष्ठ 62)

मानवता का केंद्र मनुष्य है

कविता मानवता के वास्ते मनुष्य की आज़ादी पर भरोसा करती है – मेरी सबसे बड़ी पूँजी है, मेरी चलती हुई साँस। जहाँ एक तरफ देह को पीड़ा का घर और त्याज्य माना जाता है, वहीँ केदार जी मानव देह को अनन्त शक्ति और संभावनाओं का स्वामी मानते हैं।

मेरी हड्डियाँ
मेरी देह में छिपी बिजलियाँ हैं
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल

– ( मेरे रक्त में खिला हुआ कमल पृष्ठ 54 )

पृथ्वी मनुष्य का घर है इसी लिए यह सुन्दर और समर्थ है। केदार जी की कविता में यह भाव बार बार व्यंजित होता है। “सड़क पर दिख गए कवि त्रिलोचन” कविता में, एक बच्चे का मिट्टी का बाघ, चाँद और सूरज से भी लड़ चूका होता है। यहाँ केवल परलोक से तुलना नहीं है बल्कि बुराईयों को पृथ्वी से दूर करने का संघर्ष भी है इसीलिए मिट्टी का बाघ समुद्री डांकुओं से भी लड़ता है।

मैं सूर्य से ज्यादा संपन्न हूँ
इस पृथ्वी पर

– (जन्मदिन की धूप में;पृष्ठ 64)
……………
उपलों की गंध
फूल की गंध से
अधिक भारी
अधिक उदार

-(घुलते हुए गलते हुए;पृष्ठ 49)

 

दुखों के बीच ‘उम्मीद नहीं छोड़ती कविताएँ’

केदार जी के लिए दुःख शिकायत की बजाय जागृति पैदा करता है। इस जागृति में स्वप्न की बजाय यथार्थ उनका अधिक साथ देता है। ‘अकाल में सारस’ और ‘अकाल में दूब’ उम्मीद की कविताएँ हैं। रोहिताश्व ने ‘मिट्टी की रोशनी’ में कहा भी है कि ‘अकाल में दूब कविता’, विपरीत स्थितियों में सूखे अकाल की स्थिति में दूब के अगर बचे रहने की गवाही देती है, तो यह अकाल की विषमता के समानान्तर आशा-विश्वास और जीवन सौन्दर्य की अनुभूति है, यहां नश्वरता के बरक्स अनश्वरता का सौन्दर्य बोध गतिशील है।

अभी बहुत कुछ बचा है
अगर बची है दूब

– (अकाल में दूब;पृष्ठ 20)

दुःख अनिवार्य है इसी लिए केदार जी की कविताओं में वह सहज-साधारण और खूबसूरत है। इस दुःख के बीच से ही आनंद का रास्ता फूटता है। हमें बस स्मृति और साहस को बनाये रखने की जरुरत है –

रास्ता था
सिर्फ हम ही भूल गए थे
जाना किधर है

– (रास्ता पृष्ठ 29 )

दुःख के अभाव में सुख की कल्पना भी नहीं की जा सकती। विकल्पहीनता दुनियां का सबसे बड़ा दुःख है। कविता में दुःख के भीतर अंतर्निहित भविष्य के विकल्प दिखाई देते हैं –

सोचता हूँ
जब सारे बोझे उठ जायेंगें
जब किसी के पास
ढोनें के लिए नहीं कुछ होगा
सिवा सिर के
तो कितनी खाली खाली
लगेगी दुनियां
कितने सूने सूने
दिखेंगें सर

– (बोझे;पृष्ठ 77)

कवि मसीहा नहीं होता लेकिन उसकी कविता जिंदगी का जरुरी अंग है। बेन ओकरी ने कहा भी है कि वर्तमान दुनियाँ में जहाँ बंदूकों की होड़ लगी हुई है, बम-बारूदों की बहसें जारी हैं और इस उन्माद को पोसता हुआ विश्वास फैला है कि सिर्फ़ हमारा पक्ष, हमारा धर्म, हमारी राजनीति ही सही है, दुनियाँ युद्ध की ओर एक घातक अंश पर झुकी हुई है … ईश्वर जानता है कि किसी भी समय के मुकाबले हमें कविता की जरुरत आज कहीं ज्यादा है।

केदारनाथ सिंह ‘अकाल में सारस’ के बहाने मानवता के सुखद भविष्य के लिए उम्मीद पैदा करतें है।

स्त्रोत – अकाल में सारस – केदारनाथ सिंह ; राजकमल प्रकाशन ; छठा संस्करण 2015

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