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‘आजादी’ के असल मायने साकार करती झारखंड की ग्रामीण महिलाएं!

गांव की इन महिलाओं ने आजादी को अपना ब्रांड बनाया है। आईए हम और आप इन महिलाओं से जुड़कर इनके गरीबी मुक्त झारखण्ड के सपने को धरातल पर उतारने में मदद करें और इस स्वतंत्रता दिवस par इनके ब्रांड - 'आजादी' को प्रोत्साहित करें।

गांव की महिलाएं जिन्हें आजादी के बाद कुछ वर्ष पूर्व तक अबला माना गया वे अब सबला बन कर सामने आ रही है। शहर की तुलना में गांव की महिलाएं अपेक्षाकृत ज्यादा तादाद में व्यवस्था की कमान संभाल रही है। स्वयं सहायता समूह से जुड़कर एक ओर जहां महिलाएं अपने परिवार के ‘आजीविका’ को सशक्त बना रही हैं वहीं ग्राम संगठन से जुड़कर सामुदायिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं।

झारखंड स्टेट लाईवलीहुड प्रमोशन सोसाईटी ने सेवाओं सुविधाओं से वंचित रही ऐसी ही महिलाओं की उपलब्धियों की असाधारण कहानियों को संजोया है, जो दिखती तो साधारण हैं, लेकिन धारा के विपरीत तैरने की अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के कारण सचमुच असाधारण है। ये वो महिलाएं हैं जिन्होंने अपने दम पर अपने ख्वाबों को पूरा किया और अब अपने गांव के विकास और राज्य से गरीबी खत्म करने के लिए प्रयासरत है।

ये वो महिलाएं हैं जिन्होंने तमाम प्रतिरोधों और बाधाओं के बावजूद, अपने संघर्ष पथ पर चलना निरंतर जारी रखा।

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गरीबी मिटाने की ब्रांड बन चुकी झारखंड के चाईबासा की ग्रामीण महिलाएं

इन्होने न सिर्फ खुद को एक सशक्त मुकाम दिया बल्कि आज वे दूसरी गरीब, शोषित और अभावों से ग्रस्त महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए भी काम कर रही हैं और उनकी प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं।

अपने संगठन के माध्यम से ग्रामीण महिलाएं आज झारखंड के ग्रामीण इलाकों के विकास की नई रेखा खींच रही है। ग्रामीण महिलाओं के लिए आजादी के कई मायने है। वो आजादी के इतने सालों के बाद भी खुद को आजाद करने के लिए नई  बिसात बिछा रही है।

आजादी पर्दा प्रथा से! छुटकारा बाल विवाह से! मुक्ति बाल एवं महिला तस्करी से! डायन प्रथा से आजादी! नशाखोरी से मुक्त गांव!! ग्रामीण महिलाओं के आजादी के प्राथमिक मायने यही है!

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गांव की महिलाएं सिर्फ आजादी के मायने का सपना नहीं देख रही है कई सपनों को धरातल पर लाने के लिए जी तोड़ मेहनत भी करती है।

ये वो महिलाएं है जो आजादी को अपना ब्रांड मानती है, स्वाधीनता के मायने गांव के विकास के इन झंडाबदारों के लिए थोडे अलग है। आजाद भारत के आजाद झारखंड को ये गरीबी के चंगुल से बाहर निकालने के लिए काम कर रही है। इनके लिए आजादी का मतलब गांव की हर गरीब महिला को समूह में जोड़कर गरीबी से बाहर निकालना है। इनके लिए स्वाधीनता के मायने गांव के हर युवा को कौशल प्रशिक्षण देकर रोजगार से जोड़ना है। इनके लिए स्वतंत्रता का सही मतलब सुदूर गांव की आखिरी महिला को आजीविका के साधनो से जोड़कर समर्थ बनाना है ताकि ये महिलाए अपने परिवार को समर्थ बना सके और परिवार से गांव, राज्य और देश समर्थ बने।

आजादी को आपना ब्रांड मंत्र मानने वाली ये ग्रामीण महिलाएं आज विकास दूत की तरह गांव की तरक्की के लिए काम कर रही है, दीन दयाल अंत्योदय योजना राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन से जुड़कर गरीबी की खाई से बाहर निकली ये महिलाएं आज महिला शक्ति का नायाब उदाहरण है। स्वयं सहायता समूह को अपनी मां का दर्जा देने वाली आजीविका मिशन की ये महिलाएं कम्युनिटी रिसोर्स पर्सन के रुप में जानी जाती है।

आईए आपको मिलवाते है गांव के विकास के पथ को महिला शक्ति से मजबूत कर रही इन हजारों महिलाओं की टोली से, जिनके लिए आजादी के असल मायने है विकसीत गांव, खुशहाल समाज, समृद्ध महिला, समृद्ध किसान ……

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गांव के हर गरीब परिवार को स्वयं सहायता समूह में जोड़ती हैं रांची की ग्रामीण महिलाएं

पूरे झारखंड में करीब 5000 से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं सामुदायिक कैडर के रुप में गांव के विकास के लिए काम कर रही है उनमें से एक है सीमा देवी। सीमा राज्य के सबसे पिछड़े जिलों में से एक पश्चिमी सिंहभूम के मनोहरपुर प्रखण्ड के उनधन गांव की रहने वाली है। पति की दुर्घटना में असामायिक मौत से टूट चुकी सीमा, जिंदगी से हार मानने लगी थी। घर में कमाई का कोई साधन नहीं था। बेटी की पढ़ाई बंद करने तक की नौबत आ गईथी। तभी आजीविका मिशन की सीआरपी दीदी उनकी जिंदगी में भगवान बनकर आई और सीमा को स्वयं सहायता समूह के फायदे बताकर सदस्य बना दी।

फिर क्या था सीमा ने समूह से जुड़कर अपनी जरुरतों को पूरा कर अपनी जिंदगी को नई दिशा दी । अब तक 50 हजार से ज्यादा कर्ज ले चुकी सीमा अपनी बेटी को इंजीनियरिंग पढ़ा रही है और कर्ज भी चुका रही है।

सीमा यहीं नहीं रुकी! गरीबी की अपनी बेड़ियों को तोड़ने में जिस तरह सीआरपी दीदी ने सीमा की मदद की थी, सीमा भी दूसरों की मदद करना चाहती थी। सीमा देवी कड़ी मेहनत कर इंटरनल सीआरपी बनी और वर्तमान में झारखंड के अलग अलग जिलों में जाकर गरीबी से बाहर निकलने की अपनी कहानी सुनाकर दूसरी गरीब महिलाओं को समूह से जोड़ रही है। सीमा ने अब तक सैकड़ों गरीब महिलाओं की जिंदगी को बदलाव के रास्ते पर ला दिया है।

सीमा के लिए भी आजादी के मायने है, दूसरों की मदद करना और इसी मूल मंत्र के साथ वो आगे बढ़ रही है।

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सीमा देवी – स्वयं सहायता समूह के बूते अपनी जिंदगी संवार अब गांव के विकास के लिए कर रही है काम

मनोहरपुर के उनधन गांव के ‘दीपिका स्वयं सहायता समूह’ की बुक-कीपर एवं इंटरनल सीआरपी सीमा देवी कहती है कि, “महिलाओं को पहले घर से निकलने की आजादी भी नहीं थी लेकिन मैं बाहर निकली और विषम परिस्थितियों में भी इस आजादी के फायदे आज हमारे सामने है आज महिलाओं के लिए आजादी के मायने है अपने आत्मविश्वास को बढ़ाकर अपनी पहचान बनाना और मैं ग्रामीण झारखंड में महिलाओं की ऐसी ही आजादी के लिए काम कर रही हूं क्योंकि आने वाले दिनों में ऐसी ही आत्मविश्वासी महिलाओं की फौज राज्य से गरीबी खत्म करेंगी।”

 

सीमा देवी जैसी हजारों महिलाएं आज अपनी पहचान बनाकर दूसरे गांव तथा जिलों की महिलाओं को अपने पथ पर चलने के लिए तैयार भी कर रही है। हाल की कई ऐसी पहल ने इस बात को साबित कर दिया कि ये सामुदायिक कैडर और सामुदायिक संगठन ( स्वयं सहायता समूह, ग्राम संगठन) गांव में बदलाव की धूरी बन चुके है और इनकी वजह से गांव विकास के नये आयाम का परचम भी लहरा रहा है।

हाल ही में पश्चिमी सिंहभूम के फुलवारी ग्राम संगठन की महिलाओं ने महिला शक्ति और संगठन से विकास का नया खाका खींचा। फुलवारी गांव तक पहुंचने के लिए पक्की तो दूर कच्ची सड़क भी नहीं थी। ग्राम संगठन की महिलाओं ने अपनी बैठक में चर्चा कर होने वाली परेशानियों पर विचार किया। गांव में सड़क के आभाव में स्वास्थ्य संबधी परेशानी होने पर किसी भी तरह से बाहर तक नहीं पहुंचा जा सकता था। बरसात में तो गांव से बाहर जाना मुश्किल था। बस फिर क्या था चर्चा के बाद महिलाओं ने निर्णय लिया कि समूह की सभी महिलाएं मिलकर श्रमदान कर सड़क बनायेंगी।

इसके बाद रोजाना दो घंटे महिलाएं श्रमदान करने लगीं और 6 महीने में कच्ची सड़क बनकर तैयार है। गांव के भीतर अब वाहन भी प्रवेश कर सकता है। ग्रामीण महिलाओं ने ‘योजना बनाओ अभियान’ में भी इस सड़क की मांग रखी थी और उसी के फलस्वरुप अब महिलाओं को ये मालूम चला है कि जल्द ही सरकार मनरेगा के तहत इस कच्ची सड़क को पक्की करने जा रही है। महिलाओं के संगठन के लिए आजादी के मायने बहुत अलग है।

‘फुलवारी ग्राम संगठन’ की अध्यक्ष संक्रांति धम्याल बताती है, “एकता में बहुत बल है और इसलिए ग्राम विकास के लिए महिलाओं को संगटन में जोड़ना जरुरी है।”

महिला संगठनों के तहत किए जा रहे सामाजिक कार्यों का एक उदाहरण भर है, फुलवारी में सड़क का निर्माण।

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फुलवारी गांव के इस सड़क का निर्माण समूह की महिलाओं ने श्रमदान से किया

ऐसे कई पहल है जो लगातार राज्य के अलग-अलग जिलों की महिलाए इन संगठनों के माध्यम से कर रही है जैसे खूंटपानी प्रखण्ड में करीब 30 साल से बंद पड़े हाट को समूह की दीदीयों ने शुरू किया। आज वहां 100 से ज्यादा छोटे-बड़े दुकान लगते है। गांव की आर्थिक स्थिती को ठीक करने में ये हाट आज बड़ा योगदान दे रहा है।

वहीं सिमडेगा और रांची में ग्राम संगठन नशाबंदी के उपर काम कर रहा है। गिरीडिह में महिलाएं शौचालय एवं स्वच्छता को अपना नारा बना चुकी है।

एक ही राज्य के अलग अलग जिलों की ये महिलाएं अलग अलग मकसद से काम कर रही है। कुछ के लिए स्वाधीनता का मतलब है नशा से मुक्ति, तो कुछ के लिए आज़ादी का अर्थ है स्वच्छता और शौचालय तक हर महिला की पहुंच।

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रांची के नामकुम प्रखण्ड में नशाबंदी के लिए रैली निकालती स्वयं सहायता समूह की महिलाएं

गांवों तक विकास की लौ को पहुंचाने में सरकार के प्रयासों का साथ दे रही है आजीविका मिशन की बदलाव की वाहक ये महिलाएं। राज्य भर में सीआरपी के कई रोल है। कुछ पशु सखी के रुप में पशु पालने एवं उनसे जुड़ी परेशानियों को दूर करने में गांव की मदद करती है, तो कुछ आजीविका कृषक मित्र के रुप में किसानों को उन्नत खेती के गुर भी सिखाती है। इंटरनल सीआरपी के रुप में काम कर रही महिलाएं जहां गरीब महिलाओं को समूह में जोड़ रही है, वहीं कुछ सीआरपी गांव की दीदीयों को वित्तिय साक्षरता के गुर समझाती है। इनका रोल यहीं खत्म नहीं होता टैबलेट दीदी के रुप में ये महिलाएं समूह के आंकड़ों का लेखा जोखा टैबलेट से करती है और विभिन्न जानकारी भी देती है, ये टैबलेट दीदी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिजीटल इंडिया के सपने को अपने गांव में साकार कर रही है।

जब दर्जनों की तादाद में राज्य के अलग अलग जिलों की ग्रामीण महिलाएं जो सीआरपी के रुप में काम कर रही है, से हमने मुलाकात की तो आजादी के ये मायने निकल कर सामने आये।

महिलाओं को गांव में चलने की आजादी, घूमने की आजादी, अंधविश्वास से आजादी, योजनाओं की जानकारी सही मायने में यही उनकी आजादी है।

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गांव की महिलाओं ने समूह की मदद से शुरू किया ये पारंपरिक खान-पान की दुकान

आजादी को अपना ब्रांड मानने वाली इन ग्रामीण महिलाओं का मानना है,

“हम चलेंगे तभी तो हमारी बेटियां भी चलेंगी और जब सब साथ चलेंगी तो सब आजाद, बेफिक्र और बेपरवाह चलेंगी। फिर दुनिया को हमारे चलने की आदत हो जाएगी और अगर नहीं होगी तो आदत डलवानी पड़ेगी, इसी उद्देश्य से हमारे संगठन काम कर रहे है। हमारे लिए यही स्वाधीनता है कि हम हर माह सैकड़ों महिलाओं को समूह में जोड़कर उनको बेड़ियों से बाहर निकाल रहे है और उनके कल को संवारने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे है।”

गांव की इन महिलाओं ने आजादी को अपना ब्रांड बनाया है। आईए हम और आप इन महिलाओं से जुड़कर इनके गरीबी मुक्त झारखण्ड के सपने को धरातल पर उतारने में मदद करें और इस स्वतंत्रता दिवस पर इनके ब्रांड – ‘आजादी’ को प्रोत्साहित करें।

 

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